महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 4-10

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 4-10 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13

यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्त्व ऋषियों द्वारा[1] बहुत प्रकार से कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्ति युक्त ब्रह्मसूत्र पदों द्वारा भी कहा जा सकता है। पाँच महाभूत अंहकार,[2] बुद्धि[3] और मूल प्रकृति[4] भी; तथा दस इंद्रियाँ[5] एक मन[6] और पाँच इन्द्रियों के विषय[7] अर्थात शब्द स्पर्श, रूप, रस और गंध- तथा इच्छा,[8] द्वेष,[9] सुख,[10] दुख,[11] देह का पिण्ड, चेतना,[12] और धृति[13] इस प्रकार विकारों के सहित यह क्षेत्र संक्षेप कहा गया[14] सम्बन्ध इस प्रकार क्षेत्र के स्वरूप और उसके विकारो का वर्णन करने के बाद अब जो दूसरे श्लोक में यह बात कही थी कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है, उस ज्ञान को प्राप्त करने के साधनों का ‘ज्ञान’ के ही नाम से पाँच श्लोकों द्वारा वर्णन करते हैं।

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना,[15] क्षमा भाव,[16] मन वाणी आदि की सरलता,[17] श्रद्धामुक्ति सहित गुरु की सेवा,[18] बाहर-भीतर की शुद्धि[19] अन्तःकरण की स्थिरता[20] और मन इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह।[21] एक लोक और परलोक के सम्पूर्ण भागों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार बार विचार करना।[22] पुत्र, स्त्री, घर, और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना। मुझे परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति[23] तथा एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव और विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मंत्रों के द्रष्टा एवं शास्त्र और स्मृतियों के रचयिता ऋषिगणों ने ‘क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ’ के स्वरूप को और उनसे सम्बन्ध रखने वाली सभी बातों को अपने अपने ग्रन्थों में और पुराण-इतिहास बहुत प्रकार से वर्णन करके विस्तारपूर्वक समझाया है; उन्हीं का सार यहाँ बहुत थोड़े शब्दों में भगवान कहते हैं।
  2. यह समष्टि अंत कारण एक भेद है। अहंकार ही पंचतन्मात्राओं, मन और समस्त इंद्रियों का कारण तथा महत्तत्त्व का कार्य है। इसी को ‘अंहभाव’ भी कहते हैं। यहाँ अहंकार शब्द उसी का वाचक है।
  3. जिसे ‘महत्तत्त्व’ (महान) और समष्टि बुद्धि भी कहते हैं, जो समष्टि अन्त:करण का एक भेद है, निश्चय ही जिसका स्वरूप है- उसको यहाँ 'बुद्धि' कहा गया है।
  4. यहाँ अव्यक्त का अर्थ मूल प्रकृति समझना चाहिये, जो महत्तत्त्व आदि समस्त पदार्थों की कारणरूपा है, सांख्यशास्त्र में जिसको प्रधान कहते हैं, भगवान ने गीता के चौदहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में जिसकी महद्ब्रहा कहा है तथा इस अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में जिसको प्रकृति नाम दिया गया है।
  5. वाक्, पाणि(हाथ), पाद (पैर), उपस्थ और गुदा पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। तथा श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, और घ्राण यह पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है। यह सब मिलकर दस इन्द्रियाँ हैं। इन सबका कारण अहंकार है।
  6. यहाँ एक शब्द से उस मन को ही बतलाया गया है। जो समष्टि अन्तःकरण मनन करने वाली शक्ति-विशेष है, संकल्प-विकल्प ही जिसका स्वरूप है। वे भी अहंकार का कार्य है।
  7. यहाँ ‘पंच इन्द्रियगोचराः’ पदों का अर्थ शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध समझना चाहिये, जो कि पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के स्थूल विषय है। यह सूक्ष्म भूतों के कार्य हैं।
  8. जिन पदार्थाें को मनुष्य सुख के हेतु और दुःखनाशक समझता है। उन को प्राप्त करने की आप्तियुक्त जो कामना है- जिसे वासना, तृणा, आशा, लालसा, और स्पृहा आदि अनेक भेद है- उसी का वाचन यहाँ इच्छा शब्द है।
  9. जिन पदार्थों को मनुष्य दुख में हेतु या सुख में बाधक समझता है। उनमें जो विरोध बुद्धि होती है- उसका नाम द्वेष हैं। इसके स्थूल रूप वैर, ईर्ष्या, घृणा और क्रोध आदि है।
  10. अनुकूल की प्राप्ति और प्रतिकूल की निवृति से अन्तःकरण में जो प्रसन्नता की वृति होती है, उसका नाम ‘सुख’ है।
  11. प्रतिकूल प्राप्ति और अनुकूल के विनाश से जो अन्तःकरण में जो व्याकुलता होती है, जिसे व्यथा भी कहते हैं- उसका वाचन ‘दुख’ है।
  12. अन्तः करण में जो ज्ञान शक्ति है, जिसके द्वारा प्राणी सुख दुख और समस्त पदार्थाें का अनुभव करते हैं, जिसे गीता के दसवें अध्याय में बाईसवें श्लोक मे ‘चेतना’ कहा गया है। -उसी का वाचक यहाँ ‘चेतना’ है, ये भी अंत:करण की वृति विशेष है; अतएव इसकी भी गणना क्षेत्र के विकारों मे की गयी है।
  13. गीता के अठारवें अध्याय में तैंतीसवें, चौंतीसवें, और पैंतीसवें श्लोक में जिस धारण शक्ति के सात्त्विक, राजस और तामस- तीन भेद किये गये हैं, उसी का वाचन यहाँ ‘धृति’ है। अन्तः करण का विकार होने से इसकी गणना भी क्षेत्र के विकारों मे की गयी है।
  14. यहाँ तक विकारों सहित क्षेत्र का संक्षेप्त में वर्णन हो गया है, अर्थात पाँचवें श्लोक में क्षेत्र का स्वरूप संक्षेप में बतला दिया गया और छठे में उसके विकारों का वर्णन संक्षेप में कर दिया गया है।
  15. किसी भी प्राणी मन वाणी या शरीर से किसी प्रकार की कमी कष्ट देना- मन से किसी का बुरा चाहना, वाणी से किसी को गाली देना, कठोर वचन कहना, किसी की निंदा करना, या अन्य किसी प्रकार के दुःख दायक और अहित-कारक वचन कह देना; शरीर से किसी को मारना, कष्ट पहुँचाना या किसी प्रकार से भी हानि पहुँचाना आदि जो हिंसा के भाव हैं, इन सबके सर्वदा अभाव का नाम ‘अहिंसा’ अर्थात किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना है।
  16. अपना अपराध करने वाले के लिये किसी भी प्रकार भी दण्ड देने का भाव मन में न रखना, उससे बदला लेने की अथवा अपराध के बदले उसे इस लोक या परलोक में दण्ड मिले- ऐसी इच्छा न रखना और उसके अपराधों को वस्तुतः अपराध ही न मानकर उन्हें सर्वथा भुला देना ‘क्षमाभाव’ है। गीता के दसवें अध्याय के चौथें श्लोक में इसकी कुछ विस्तार से व्याख्या की गयी है।
  17. जिस साधक में मन, वाणी और शरीर की सरलता का भाव पूर्ण रूप से आ जाता है, वह सबके साथ सरलता का व्यवहार करता है; उसमें कुटिलता का सर्वथा अभाव हो जाता है। अर्थात उसके व्यवहार में दाव-पेंच, कपट या टेड़ापन जरा भी नहींं रहता; वह बाहर और भीतर ने समान और सरल रहता है।
  18. विद्या और सदुपदेश देने वाले गुरु का नाम ‘आर्चाय’ ऐसे गुरु के पास रहकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक, मन,वाणी और शरीर के द्वारा सब प्रकार से उनको सुख पहुँचाने की चेष्टा करना, नमस्कार करना, उनकी आज्ञाओं का पालन करना और उनके अनुकुल आचरण करना आदि ‘आचार्योपासन’ यानि गुरु सेवा है।
  19. सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की शुद्धि होती है, उस द्रव्य से उपार्जित अन्न से आहार की शुद्धि होती है। यथायोग्य शुद्ध बर्ताव से आचरणों की शुद्धि होती है। और जल- मिट्टी आदि के द्वारा प्रक्षालनादि क्रिया से शरीर की शुद्धि होती है। यह सब बाहर की शुद्धि है। राग- द्वेष, छल, कपट, आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि है। दोनों ही प्रकार की शुद्धि को ‘शौच’ कहा जाता है।
  20. बड़े-से-बड़े कष्ट, विपत्ति या दुःख के आ पड़ने पर भी विचलित न होना एवं काम, क्रोध, भय, लोभ, आदि से किसी भी प्रकार अपने धर्म और कर्तव्य से जरा भी न डिगना तथा मन और बुद्धि में किसी तरह की चंचलता का न रहना ‘अन्तःकरण की स्थिरता’ है।
  21. यहाँ आत्मा से अन्तःकरण और इन्द्रियों के के सहित शरीर को समझना चाहिए। अतः इन सब को भली-भाँति अपने वश में कर लेना ही इसका निग्रह करना है।
  22. जन्म का कष्ट सहज नहींं है; पहले तो असहाय जीव को माता के गर्भ में लंबे समय तक भाँति-भाँति के क्लेश होते हैं, फिर जन्म के समय योनि द्वार से निकलने में असह्य यन्त्रणा भोगनी पड़ती है। नाना प्रकार की योनी में बार बार जन्म ग्रहण करने में ये जन्म-दुःख होते हैं। मृत्युकाल में भी महान कष्ट होता है। जिस शरीर और घर में आजीवन ममता रही, उसे बलात्कार से छोड़कर जाना पड़ता है। मरण समय के निराश नेत्रों को और शारीरिक पीड़ा को देखकर उस समय की यंत्रणा का बहुत कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। बुढ़ापे की यन्त्रणा भी कम नहींं होती है; इन्द्रियाँ शिथिल और शक्तिहीन हो जाती है। है, शरीर जर्जर हो जाता है। मन में नित्य लालसा की तरंगें उछलती रहती है, असहाय अवस्था हो जाती है। ऐसी अवस्था में जो कष्ट होता है, यह बड़ा ही भयानक होता है। इसी प्रकार बीमारी की पीड़ा भी बड़ी दुःखदायिनी होती है। शरीर क्षीण हो गया, नाना प्रकार के असह्य कष्ट हो रहे हैं, दूसरों की अधीनता हैं। निरूपाय स्थिति है। यही सब जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि के दुःख है। इन दुःखों का बार बार स्मरण करना और इन पर विचार करना ही इनमें दुःखों का देखना है। जीवों का जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, प्राप्त होते हैं, पापों के परिणामस्वरूप; अतएव ये चारों ही दोषमय है। इसी का बार बार विचार करना इनमें दोषों को देखना है।
  23. भगवान ही सर्वश्रेष्ठ हैं और वे ही हमारे स्वामी, शरण ग्रहण करने योग्य, परमगति, परम आश्रय, माता-पिता, भाई-बन्धु, परम हितकारी, परम आत्मीय और सर्वस्व हैं; उनको छोड़कर हमारा अन्य कोई भी नहीं है- इस भाव से जो भगवान के साथ अनन्य सम्बन्ध है, उसका नाम ‘अनन्य योग’ है। तथा इस प्रकार के सम्बन्ध से केवल भगवान में ही अटल और पूर्ण विशुद्ध प्रेम करके निरन्तर भगवान का ही भजन, ध्यान करते रहना ही अनन्य योग के द्वारा भगवान में अव्यभि-चारिणी भक्ति करना है।

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