महाभारत वन पर्व अध्याय 93 श्लोक 20-29

त्रिनवतितम (93) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रिनवतितम अध्‍याय: श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद


ऋर्षियों ने कहा- 'युधिष्ठिर! भीमसेन! नकुल! और सहदेव! तुम लोग तीर्थों के प्रति मन से श्रद्धापूर्वक सरलभाव रखो। मन से शुद्धि का सम्पादन करके शुद्धचित होकर तीर्थों में जाओ। ब्राह्मण लोग शरीर शुद्धि के नियम को मानुषव्रत बताते हैं और मन के द्वारा शुद्ध की हुइ बुद्धि को दैवव्रत कहते हैं। नरेश्वर! यदि मन राग-द्वेष से दूषित न हो तो वह शुद्धि के लिये पर्याप्त माना गया है। सब प्राणियों के प्रति मैत्री बुद्धि का आश्रय ले शुद्धभाव से तीर्थों का दर्शन करो। तुम मानसिक और शारीरिक नियम व्रतों से शुद्ध हो। दैवव्रत का आश्रय ले यात्रा करोगे तो तीर्थों का तुम्हें यथावत् फल प्राप्त होगा।'

महर्षियों के ऐसा कहने पर द्रौपदी सहित पाण्डवों ने ‘बहुत अच्छा।’ कहकर (उनकी आज्ञाएं शिरोधार्य की और उनके बताये हुए नियमों का पालन करने की) प्रतिज्ञा की।

तत्पश्चात उन दिव्य और मानव महर्षियों ने उन सबके लिये स्वस्तिवाचन किया। राजेन्द्र! तदनन्तर महर्षि लोमश, द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद और पर्वत के चरणों का स्पर्श करके वनवासी ब्राह्मणों, पुरोहित धौम्य और लोमश आदि के साथ वीर पाण्डव तीर्थयात्रा के लिये निकले। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा व्यतीत होने पर जब पुष्य नक्षत्र था, तब उसी नक्षत्र में उन्होंने यात्रा प्रारम्भ की।

उन सब ने शरीर पर फटे-पुराने वस्त्र या मृगचर्म धारण कर रखे थे। उनके मस्तक पर जटाएं थीं। उनके अंग अभेद्य कवचों से ढके हुए थे। वे सूर्यप्रदत्त बटलोई आदि पात्र लेकर वहाँ तीर्थों में विचरण करने लगे। उनके साथ इन्द्रसेन आदि चौदह से अधिक सेवक रथ लिये पीछे-पीछे जा रहे थे। रसोई के काम में संलग्न रहने वाले अन्यान्य सेवक भी उनके साथ थे।

जनमेजय! वीर पाण्डव आवश्यक अस्त्र-शस्त्र ले, कमर में तलवार बांधकर पीठ पर तरकस कसे हुए, हाथों में बाण लिये पूर्व दिशा की ओर मुँह करके वहाँ से प्रस्थित हुए।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा विषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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