महाभारत वन पर्व अध्याय 193 श्लोक 20-37

त्रिनवत्‍यधिकशततम (193) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

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महाभारत: वन पर्व: त्रिनवत्‍यधिकशततमो श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद


निर्धन मनुष्‍यों को जो दूसरों से तिरस्‍कृत होना पड़ता है, इससे बढ़कर महान कष्‍ट की बात संसार में मुझे और कोई नहीं जान पड़ती है। चिरजीवी मनुष्‍य अकुलीनों के कुल की उन्‍नति, कुलीनों के कुल का संहार तथा संयोग और वियोग देखते रहते हैं। देव शतक्रतो! आप भी तो यह प्रत्‍यक्ष ही देख रहे हैं कि किस प्रकार समृद्धिशाली अकुलीन मनुष्‍यों के कुल में उलटफेर हो जाता है। देवता, दानव, गन्धर्व]], मनुष्‍य, नाग तथा राक्षस-ये सभी विपरीत अवस्‍था में पहुँचकर क्‍या से क्‍या हो जाते हैं। इससे बढ़कर महान् दु:ख और क्‍या होगा। कुलीन मनुष्‍य भी नीच कुल के लोगों के वश में पड़कर क्‍लेश उठा रहे हैं और धनी लोग दरिद्रों को सताते हैं। इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्‍या हो सकती है। लोक में यह विपरीत अवस्‍था बहुत अधिक दिखायी देती है। ज्ञानहीन मूढ़ मनुष्‍य तो मौज करते हैं और श्रेष्‍ठ ज्ञानी मनुष्‍य क्‍लेश भोग रहे हैं। यहाँ मानव योनि में दु:ख और क्‍लेश की अधिकता ही दृष्टिगोचर होती है।

इन्‍द्र ने पूछा- महाभाग! देवता तथा ऋषियों के समुदाय आपकी सेवा में उपस्थित र‍हते हैं। ब्रह्मन! अब मुझसे फिर यह बताइये कि चिरजीवी मनुष्‍यों को क्‍या सुख मिलता है?

बक ने कहा- जो दिन के आठवें या बारहवें भाग में अपने घर पर भोजन के लिये केवल शाक पका लेता है, परंतु कुमित्रों की शरण में नहीं जाता, उस पुरुष को जो सुख प्राप्‍त है, उससे बढ़कर सुख और क्‍या हो सकता है। जहाँ दिन नहीं गिने जाते-जहाँ प्रतिदिन अन्‍न की प्राप्ति कि लिये चिन्‍ता नहीं करनी पड़ती है; वही सुखी है। उसे लोग अधिक खाने वाला अथवा पेटू नहीं कहते हैं। इन्‍द्र! जो अपने पराक्रम से उपार्जन कर‍के घर में केवल शाक बनाकर खाता है, पंरतु दूसरे किसी का सहारा नहीं लेता, उसे ही सुख है। दूसरे के सामने दीनता न दिखाकर अपने घर में फल और शाक खाकर रहना अच्‍छा है। परंतु दूसरे के घर में सदा तिरस्‍कार सहकर मीठे पकवान खाना भी अच्‍छा नहीं है; अत: दूसरे के आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करने के सम्‍बन्‍ध में साधु पुरुषों का सदा से ही विरोध रहा है। जो पराया अन्‍न खाना चाहता है, वह कुत्ते की भाँति खून चाटता है। उस दुरात्‍मा और कृपण के वैसे भोजन को धिक्‍कार है।

जो श्रेष्‍ठ द्विज सदा अतिथियों, भूत-प्राणियों तथा पितरों को अर्पण करके अर्थात् बलि-वैश्वदेव करके शेष अन्‍न स्‍वयं भोजन करता है, उससे बढ़कर महान् सुख और क्‍या हो सकता है। देवेन्‍द्र! इस यज्ञशेष अन्‍न से बढ़कर अत्‍यन्‍त मधुर और पवित्र दूसरा कोई भोजन नहीं है। जो प्रतिदिन अतिथियों को देकर शेष अन्‍न से ही भोजन का काम चलाता है, उसके अन्‍न के जितने ग्रास अतिथि ब्राह्मण नित्‍य भोजन करता है, उतने ही हजार गौओं के दान का पुण्‍य उस दाता को प्राप्‍त होता है तथा उसके द्वारा युवावस्‍था में जो पाप हुए होते हैं, वे सब निश्‍चय ही नष्‍ट हो जाते हैं। ब्राह्मण के भोजन कर लेने पर जो उसे दक्षिणा दी जाती है, उस समय उसके हाथ में जो प्रतिग्रह का जल रहता है, उसे दाता पुन: उत्‍सर्ग के जल से सींचे। ऐसा करने से वह तत्‍काल सब पापों से छूट जाता है। इस प्रकार देवराज इन्‍द्र बक के साथ ये तथा और बहुत-सी उत्तम कथा-वार्ताएं करके उनसे आज्ञा लेकर स्‍वर्ग लोक को चले गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अंतर्गत मार्कण्डेयसमास्यापर्व में ब्राह्मणों के माहात्म्य के सम्बंध में बक-इंद्र संवाद विषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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