द्विनवत्यधिकद्विशततम (292) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्विनवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 15-23 का हिन्दी अनुवाद
असित, देवल, नारद, पर्वत, कक्षीवान, जमदग्निनन्दन परशुराम, मन को वश में रखने वाले ताण्डय, वसिष्ठ, जमदग्नि, विश्वामित्र, अत्रि, भरद्वाज, हरिश्मश्रु, कुण्डधार तथा श्रुतश्रवा- इन महर्षियों ने एकाग्रचित्त हो वेद की ऋचाओं द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति करके उन्हीं बुद्धिमान श्रीहरि की कृपा से तपस्या करके सिद्धि प्राप्त कर ली। जो पूजा के योग्य नहीं थे, वे भी भगवान विष्णु की स्तुति करके पूजनीय संत होकर उन्हीं को प्राप्त हो गये। इस लोक में निन्दनीय आचरण करके किसी को भी अपने अभ्युदय की आशा नहीं रखनी चाहिये। धर्म का पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है। जो अधर्म से प्राप्त होता है, वह धन तो धिक्कार देने योग्य है। संसार में धन की इच्छा से शाश्वत धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिये। राजेन्द्र! जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, वही धर्मात्मा है और वही पुण्यकर्म करने वालों में श्रेष्ठ हैं। प्रभो! सम्पूर्ण वेद दक्षिण, आहवनीय तथा गार्हपत्य- इन तीन अग्नियों में ही स्थित है। जिसका सदाचार एवं सत्कर्म कभी लुप्त नहीं होता, वह ब्राह्मण (अग्निहोत्र न करने पर भी) अग्निहोत्री ही है। सदाचारा का ठीक-ठीक पालन होने पर अग्निहोत्र न हो सके तो भी अच्छा है; किंतु सदाचार का त्याग करके केवल अग्निहोत्र करना कदापि कल्याणकारी नही है। पुरुष सिंह! अग्नि, आत्मा, माता, जन्म देने वाले पिता तथा गुरु -इन सबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये। जो अभिमान का त्याग करके वृद्ध पुरुषों की सेवा करता, विद्वान एवं काम-भोग में अनासक्त होकर सबको प्रेमभाव से देखता, मन में चतुराई न रखकर धर्म में संलग्न रहता और दूसरों का दमन या हिंसा नहीं करता है, वह मनुष्य इस लोक में श्रेष्ठ है तथा सत्पुरुष भी उसका आदर पाते हैं। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में पराशरगीताविषयक दो सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|