महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 158 श्लोक 24-40

अष्‍टपंचाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सैन्यनिर्याण पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टपंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 24-40 का हिन्दी अनुवाद
  • धर्मराज युधिष्ठिर तथा भगवान श्रीकृष्ण के समीप अन्‍य सब राजाओं के सुनते हुए रुक्मी के ऐसा कहने पर परमबुद्धिमान कुन्‍ती पुत्र अर्जुन ने वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर की ओर देखते हुए मित्रभाव से हँसकर कहा- (24-25)
  • ‘वीर! मैं कौरवों के कुल में उत्‍पन्‍न हुआ हूँ। आचार्य द्रोण को अपना गुरु कहता हूँ और स्‍वयं उनका शिष्‍य कहलाता हूँ। इसके सिवा साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण हमारे सहायक हैं और मैं अपने हाथ में गाण्डीव धनुष धारण करता हूँ। ऐसी स्थिति में मैं अपने-आपको डरा हुआ कैसे कह सकता हूँ? (26-27)
  • ‘वीरवर! कौरवों की घोष यात्रा के समय जब मैंने महाबली गन्धर्वों के साथ युद्ध किया था, उस समय कौन-सा मित्र मेरी सहायता के लिये आया था। (28)
  • ‘खाण्‍डववन में देवताओं और दानवों से परिपूर्ण भंयकर युद्ध में जब मैं अपने प्रति‍पक्षियों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा कौन सहायक था? (29)
  • ‘जब निवात कवच तथा कालकेय नामक दानवों के साथ छिड़े हुए युद्ध में अकेला ही लड़ रहा था, उस समय मेरी सहायता के लिये कौन आया था? (30)
  • ‘इसी प्रकार विराटनगर में जब कौरवों के साथ होने वाले संग्राम में मैं अकेला ही बहुत-से वीरों के साथ युद्ध कर रहा था, उस समय मेरा सहायक कौन था ? (31)
  • ‘मैंने युद्ध में सफलता के लिये रुद्र, इंद्र, यम, कुबेर, वरुण, अगिन, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा भगवान श्रीकृष्‍ण की आराधना की है। मैं तेजस्‍वी, दृढ़ एवं दिव्‍य गाण्‍डीव धनुष धारण करता हूँ। मेरे पास अक्षय बाणों से भरे हुए तरकस मौजूद हैं और दिव्‍यास्‍त्रों के ज्ञान से मेरी शक्ति बढ़ी हुई है। नरश्रेष्‍ठ! फिर मेरे जैसा पुरुष साक्षात वज्रधारी इन्‍द्र के सामने भी 'मैं डरा हुआ हूँ’ यह सुयश का नाश करने वाला वचन कैसे कह सकता है? (32-34)
  • ‘महाबाहो! मैं डरा हुआ नहीं हूँ तथा मुझे सहायक की भी आवश्‍यकता नहीं है। आप अपनी इच्‍छा के अनुसार जैसा उचित समझें अन्‍यत्र चले जाइये या यहीं रहिये’ (35)
  • वैशम्‍पायनजी कहते है- भरतश्रेष्‍ठ! उन परम बुद्धिमान अर्जुन का यह वचन सुनकर रुक्मी अपनी समुद्र सदृश विशाल सेना को लौटाकर उसी प्रकार दुर्योधन के पास गया। (36)
  • दुर्योधन से मिलकर रुक्‍मी ने उससे भी वैसी ही बातें कहीं। तब अपने को शूरवीर मानने वाले दुर्योधन ने भी उसकी सहायता लेने से इन्‍कार कर दिया। (37)
  • महाराज! उस युद्ध से दो ही वीर अलग हो गये थे- एक तो वृष्णिवंशी रोहिणीनन्‍दन बलराम और दूसरा राजा रुक्‍मी। (38)
  • बलरामजी के तीर्थयात्रा में और भीष्मक पुत्र रुक्‍मी के अपने नगर को चले जाने पर पाण्‍डवों ने पुन: गुप्‍त मन्‍त्रणा के लिये बैठक की। (39)
  • भारत! राजाओं से भरी हुई धर्मराज की वह सभा तारों और चन्‍द्रमा से विचित्र शोभा धारण करने वाले आकाश की भाँति सुशोभित हुर्इ। (40)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अर्न्‍गत सैनयनिर्वाणपर्वमें रुक्‍मीप्रत्‍ख्‍यानविषयक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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