महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 18-25

एकादश (11) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

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महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद


पुरुषसिंह! मेरा यही विचार है कि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र उक्त महानुभावों का श्राद्ध न करें। इसके लिये हमारे शत्रु हमारी निन्दा न करें। जिन कुलांगारों ने इस सारी पृथ्वी का विनाश कर डाला, वे दुर्योधन आदि सब लोग भारी-से-भारी कष्ट में पड़ जायें। तुम वह पुराना वैर, वह बारह वर्षों का वनवास और द्रौपदी के शोक को बढ़ाने वाला एक वर्ष का गहन अज्ञातवास सहसा भूल कैसे गये? उन दिनों धृतराष्ट्र का हमारे प्रति स्नेह कहाँ चला गया था? जब तुम्हारे आभरण एवं आभूषण उतार लिये गये और तुम काले मृगचर्म से अपने शरीर को ढँककर द्रौपदी के साथ राजा के समीप गये, उस समय द्रोणाचार्य और भीष्म कहाँ थे? सोमदत्त भी कहाँ चले गये थे। जब तुम सब लोग तेरह वर्षों तक वन में जंगली फल-मूल खाकर किसी तरह जी रहे थे, उन दिनों तुम्हारे ये ताऊ जी पिता के भाव से तुम्हारी ओर नहीं देखते थे। पार्थ! क्या तुम उस बात को भूल गये, जबकि यह कुलांगार दुर्बुद्धि धृतराष्ट्र जुआ आरम्भ कराकर विदुर जी से बार-बार पूछता था कि इस दाँव में हम लोगों ने क्या जीता है?"

भीमसेन को ऐसी बातें करते देख बुद्धिमान कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने उन्हें डाँटकर कहा- "चुप रहो।"


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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