महाभारत आदि पर्व अध्याय 140 श्लोक 18-38

चत्‍वारिंशदधिकशततम (140) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: चत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद


क्रूर कणिक के उपदेश किया हुआ कौरवों का यह कर्म अत्‍यन्‍त निर्दयता पूर्ण था। आप उसका ठीक-ठीक वर्णन कीजिये। मुझे यह सब सुनने के लिये बड़ी उत्‍कण्‍ठा हो रही है। वैशम्‍पायन जी ने कहा- शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! मैं लाक्षागृह के जलने और पाण्‍डवों का उससे बच जाने का वृत्तान्‍त विस्‍तारपूर्वक कहता हूं, सुनो। भीमसेन को सबसे अधिक बलवान् और अर्जुन का अस्त्र-विद्या में सबसे श्रेष्ठ देखकर दुर्योधन सदा संतप्त होता रहता था। उसके मन में बड़ा दु:ख था। तब सूर्य पुत्र कर्ण और सुबलकुमार शकुनि आदि अनेक उपायों से पाण्‍डवों को मारने की इच्‍छा करने लगे। पाण्‍डवों ने भी जब जैसा संकट आया, सबका निवारण किया और विदुर की सलाह मानकर वे कौरवों के षडयन्‍त्र का कभी भंडाफोड़ नहीं करते थे। भारत! उन दिनों पाण्‍डवों को सर्वगुण सम्‍पन्न देख नगर के निवासी भरी सभाओं में उनके सद्गुणों की प्रशंसा करते थे। वे जहाँ कहीं चौराहों पर और सभाओं में इकट्ठे होते वहीं पाण्‍डु के ज्‍येष्ठ पुत्र युधिष्ठिर को राज्‍य प्राप्ति के योग्‍य बताते थे। वे कहते, ‘प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र नेत्रहीन होने के कारण जब पहले ही राज्‍य न पा सके, तब (अब) वे कैसे राजा हो सकते हैं। महान व्रत का पालन करने वाले शंतनुनन्‍दन भीष्‍म तो सत्‍यप्रतिज्ञ हैं। वे पहले ही राज्‍य ठुकरा चुके हैं, अत: अब उसे कदापि ग्रहण न करेंगे। पाण्‍डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर यद्यपि अभी तरुण है, तो भी उनका शील-स्‍वभाव वृद्धों के समान है। वे सत्‍यवादी, दयालु और वेदवेत्ता हैं; अत: अब हम लोग उन्‍हीं का विधिपूर्वक राज्‍यभिषेक करें। महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मज्ञ हैं। वे शन्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म तथा पुत्रों सहित धृतराष्ट्र का आदर करते हुए उन्‍हें नाना प्रकार के भोगों से सम्‍पन्न रखेंगे’।

युधिष्ठिर में अनुरक्त हो उपर्युक्त उद्गगार प्रकट करने वाले लोगों की बातें सुनकर खोटी बुद्धि वाला दुर्योधन भीतर-ही-भीतर जलने लगा। इस प्रकार संतप्त हुआ वह दुष्टात्‍मा लोगों की बातों को सहन न कर सका। वह ईर्ष्‍या की आग से जलता हुआ धृतराष्ट्र के पास आया। वहाँ अपने पिता को अकेला पाकर पुरवासियों के युधिष्ठिर विषयक अनुराग से दुखी हुए दुर्योधन ने पहले पिता के प्रति आदर प्रदर्शित किया तत्‍पश्चात इस प्रकार कहा। दुर्योधन बोला- पिता जी! मैंने परस्‍पर वार्तालाप करते हुए पुरवासियों के मुख से (बड़ी) अशुभ बातें सुनी हैं। वे आपका और भीष्‍म जी का अनादर करके पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्ठिर को राजा बनाना चाहते हैं। भीष्‍म जी तो इस बात को मान लेंगे; क्‍योंकि वे स्‍वयं राज्‍य भोगना नहीं चाहते। परंतु नगर के लोग हमारे लिये बहुत बड़ कष्ट का आयोजन करना चा‍हते हैं। पाण्‍डु ने अपने सद्गुणों के कारण पिता से राज्‍य प्राप्त कर लिया और आप अंधे होने के कारण अधिकार प्राप्त राज्‍य को भी न पा सके। यदि ये पाण्‍डुकुमार युधिष्ठिर पाण्‍डु के राज्‍य को, जिसका उत्तराधिकारी पुत्र ही होता है, प्राप्त कर लेते हैं तो निश्चय ही उनके बाद उनका पुत्र ही इस राज्‍य का अधिकारी होगा और उसके बाद पुन: उसी की पुत्र परम्‍परा में दूसरे-दूसरे लोग इसके अधिकारी होते जायेंगे। महाराज! ऐसी दशा में हम लोग अपने पुत्रों सहित राज्‍य परम्‍परा से वंचित होने के कारण सब लोगों की अवहेलना के पात्र बन जायेंगे। राजन्! आप कोई ऐसी नीति काम में लाइये जिससे हमें दूसरों के दिये हुए अन्न से गुजारा करके सदा नरक तुल्‍य कष्ट न भोगना पड़े। राजन्! यदि पहले ही आपने यह राज्‍य पा लिया होता तो आज हम अवश्‍य ही इसे प्राप्त कर लेते; फि‍र तो लोगों का कोई वश नहीं चलता।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत जतुगृह पर्व में दुर्योधन की ईर्ष्याविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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