अष्टपंचाशत्तम (58) अध्याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: अष्टपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 20-22 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्दर हर्ष में भरे हुए मनुष्यों तथा वाहनों के साथ राजा युधिष्ठिर वहाँ से चल पड़े। वे (राज परिवार के लोगों से भरे हुए पूर्वोक्त) रथ के महान् घोष से समस्त आकाशमण्डल को गुँजाते जा रहे थे। सूत, मागध और बन्दीजन नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा उनके गुण गाते थे। उस समय विशाल सेना से घिरे हुए राजा युधिष्ठिर अपनी किरणों से आवृत हुए सूर्यदेव की भाँति शोभा पा रहे थे। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे राजा युधिष्ठिर पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति शोभा पाते थे। उनके चारों ओर स्वर्णदण्ड विभूषित चँवर डुलाये जाते थे। भरतश्रेष्ठ! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को मार्ग में बहुतेरे मनुष्य हर्षोल्लास में भरकर ‘महाराज की जय हो’ कहते हुए शुभाशीर्वाद देते थे और वे यथोचितरूप से सिर झुकाकर उन सबको स्वीकार करते थे। उस मार्ग में दूसरे बहुत-से एकाग्रचित्त हो मृगों और पक्षियों-सी आवाज में निरन्तर सुखपूर्वक कुरुराज युधिष्ठिर स्तुति करते थे। जनमेजय! इसी प्रकार जो सैनिक राजा युधिष्ठिर पीछे-पीछे जा रहे थे, उनका कोलाहल भी समूचे आकाश मण्डल को स्तब्ध करके गूँज रहा था। हाथी की पीठ पर बैठे हुए बलवान् भीमसेन राजा के आगे-आगे जा रहे थे। उनके दोनों ओर सजे-सजाये दो श्रेष्ठ अश्व थे, जिन पर नकुल और सहदेव बैठे थे। भरतश्रेष्ठ! वे दोनों भाई स्वयं तो अपने रूप सौन्दर्य से सुशोभित थे ही, उस विशाल सेना की भी शोभा बढ़ा रहे थे। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परम बुद्धिमान श्वेतवाहन अर्जुन अग्निदेव के दिये हुए रथ पर बैठकर गाण्डीव धनुष धारण किये महाराज के पीछे-पीछे जा रहे थे। राजन्! कुरुराज युधिष्ठिर सेना के बीच में चल रहे थे। द्रौपदी आदि स्त्रियाँ अपनी सेविकाओं तथा आवश्यक सामग्रियों के साथ सैकड़ों विचित्र शिबिकाओं (पालकियों) पर आरूढ़ हो बड़ी भारी सेना के साथ महाराज के आगे-आगे जा रही थीं। पाण्डवों की वह सेना हाथी-घोड़ों तथा पैदल सैनिकों से भरी-पूरी थी। उसमें बहुत-से रथ भी थे, जिसकी ध्वजाओं पर पताकाएँ फहरा रही थीं। उन सभी रथों में खड्ग आदि अस्त्र-शस्त्र संगृहित थे। सैनिकों का कोलाहल सब ओर फैल रहा था। राजन्! शंख, दुन्दुभि, ताल, वेणु और वीणा आदि वाद्यों की तुमुल ध्वनि वहाँ गूँज रही थी। उस समय हस्तिनापुर की ओर जाती हुई पाण्डवों की उस सेना की बड़ी शोभा हो रही थी। जनमेजय! कुरुराज युधिष्ठिर अनेक सरोवर, नदी, वन और उपवनों को लाँघते हुए हस्तिनापुर के समीप जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक सुखद एवं समतल प्रदेश में सैनिकों सहित पड़ाव डाल दिया। उसी छावनी में पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर स्वयं भी ठहर गये। राजन् तदनन्तर विदुर जी ने शोकाकुल वाणी में महाराज युधिष्ठिर को वहाँ का सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बता दिया कि धृतराष्ट्र क्या करना चाहते हैं और इस द्यूतक्रीड़ा के पीछे क्या रहस्य है? तब धृतराष्ट्र द्वारा बुलाये हुए काल के समयानुसार धर्मात्मा पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हस्तिनापुर में पहुँचकर धृतराष्ट्र के भवन में गये और उनसे मिले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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