महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 44 श्लोक 13-24

चतुश्चत्‍वारिंश (44) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: चतुश्चत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद
  • गुरु के प्रति शिष्य का जैसा श्रद्धा और सम्मानपूर्ण बर्ताव हो, वैसा ही गुरु की पत्नी और पुत्र के साथ भी होना चाहिये। यह भी ब्रह्मचर्य का द्वितीय पाद ही कहलाता है। (13)
  • आचार्य ने जो अपना उपकार किया, उसे ध्‍यान में रखकर तथा उससे जो प्रयोजन सिद्ध हुआ, उसका भी विचार करके मन-ही-मन प्रसन्न होकर शिष्‍य आचार्य के प्रति जो ऐसा भाव रखता है कि इन्होंने मुझे बड़ी उन्नत अवस्था में पहुँचा दिया- यह ब्रह्मचर्य का तीसरा पाद है। (14)
  • आचार्य के उपकार का बदला चुकाये बिना अर्थात गुरुदक्षिणा आदि के द्वारा उन्हें संतुष्‍ट किये बिना विद्वान शिष्‍य वहाँ से अन्यत्र न जाय। दक्षिणा देकर या गुरु की सेवा करके कभी मन में ऐसा विचार न लावे कि मैं गुरु का उपकार कर रहा हूँ तथा मुँह से भी कभी ऐसी बात न निकाले। यह ब्रह्मचर्य का चौथा पाद है। (15)
  • सनातनी विद्या के कुछ अंश को तथा उसके मर्म को तो मनुष्‍य समय के योग से प्राप्त करता है, कुछ अंश को गुरु के सम्बन्ध से तथा कुछ अंश को अपने उत्साह के सम्बन्ध से और कुछ अंश को परस्पर शास्त्र के विचार से प्राप्त करता है। (16)
  • पूर्वोक्त धर्मादि बारह गुण जिसके स्परूप है तथा और भी जो धर्म के अंग एवं सामर्थ्‍य हैं, वे भी जिसके स्वरूप हैं, वह ब्रह्मचर्य आचार्य के सम्बन्ध से प्राप्त वेदार्थ के ज्ञान से सफल होता है, ऐसा कहा जाता है। (17)
  • इस तरह ब्रह्मचर्य पालन में प्रवृत्त हुए ब्रह्मचारी को चाहिये कि जो कुछ भी धन[1] भिक्षा में प्राप्त हो, उसे आचार्य को अर्पण कर दे। ऐसा करने से वह शिष्य सत्पुरुषों के अनेक गुणों से युक्त आचार-को प्राप्त होता है। गुरु पुत्र के प्रति भी उसकी यही भावना रहनी चाहिये। (18)
  • ऐसी वृत्ति से गुरु गृह में रहने वाले शिष्‍य की इस संसार में सब प्रकार से उन्नति होती है। वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके बहुत से पुत्र और प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त करता है। सम्पूर्ण दिशा-विदिशाएं उसके लिये सुख की वर्षा करती हैं तथा उसके नि‍कट बहुत-से दूसरे लोग ब्रह्मचर्य पालन के लिये निवास करते हैं। (19)
  • इस ब्रह्मचर्य के पालन से ही देवताओं ने देवत्व प्राप्त किया और महान सौभाग्यशाली मनीषी ऋषियों ने ब्रह्मलोक को प्राप्त किया। (20)
  • इसी के प्रभाव से गन्धर्वों और अप्सराओं को दिव्य रूप प्राप्त हुआ। इस ब्रह्मचर्य के ही प्रताप से सूर्यदेव समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ होते हैं। (21)
  • रस भेदरूप चिन्तामणि से याचना करने वालों को जैसे उनके अभीष्‍ट अ‍र्थ की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य भी मनोवाञ्छित वस्तु प्रदान करने वाला है। ऐसा समझकर ये ऋषि-देवता आदि ब्रह्मचर्य के पालन से वैसे भाव को प्राप्त हुए। (22)
  • राजन! जो इस ब्रह्मचर्य का आश्रय लेता है, वह ब्रह्मचारी यम-नियमादि तप का आचरण करता हुआ अपने सम्पूर्ण शरीर को भी पवित्र बना लेता है तथा इससे विद्वान पुरुष निश्‍चय ही अबोध बालक की भाँति राग-द्वेष से शून्य हो जाता है और अन्त समय में वह मृत्यु को भी जीत लेता है। (23)
  • राजन! सकाम पुरुष अपने पुण्‍य कर्मों के द्वारा नाशवान लोकों को ही प्राप्त करते हैं; किंतु जो ब्रह्म को जानने वाला विद्वान है, वही उस ज्ञान के द्वारा सर्वरूप परमात्मा को प्राप्त होता है। मोक्ष के लिये ज्ञान के सिवा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। (24)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जीवन निर्वाह योग्य वस्तुएं

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