महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 46 श्लोक 10-20

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सनत्सुजात पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद
  • पूर्ण परमेश्र्वर से पूर्ण-चराचर प्राणी उत्‍पन्‍न होते हैं, पूर्ण सत्ता-स्‍फूर्ति पाकर ही वे पूर्ण प्राणी चेष्‍टा करते हैं, फिर पूर्ण से ही पूर्ण ब्रह्म में उनका उपसंहार[1] होता है तथा अंत में एक मात्र पूर्ण ब्रह्म ही शेष रह जाता है। उस सनातन परमात्मा का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं।(10)
  • उस पूर्ण ब्रह्म से ही वायु का आविर्भाव हुआ है और उसी में वह चेष्‍टा करता है। उसी से अग्नि और सोम की उत्‍पत्ति हुई है तथा उसी में यह प्राण विस्‍तृत हुआ है।(11)
  • कहाँ तक गिनावें, हम अलग-अलग वस्‍तुओं का नाम बताने में असमर्थ हैं। तुम इतना ही समझों कि सब कुछ उस परमात्‍मा से ही प्रकट हुआ है। उस सनातन भगवान का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं।(12)
  • अपान को प्राण अपने में विलीन कर लेता है, प्राण को चंद्रमा, चन्‍द्रमा को सूर्य और सूर्य को परमात्‍मा अपने में विलीन कर लेता है; उस सनातन परमेश्र्वर का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं।(13)
  • इस संसार-सलिल से ऊपर उठा हुआ हंसरूप परमात्मा अपने एक पाद[2]को ऊपर नहीं उठा रहा है; यदि उसे भी वह ऊपर उठा ले तो सबका बन्‍ध और मोक्ष सदा के लिये मिट जाय। उस सनातन परमेश्र्वर का योगी जन का साक्षात्‍कार करते हैं।(14)
  • हृदयदेश में स्थित वह अंगुष्‍ठमात्र जीवात्‍मा सूक्ष्‍म[3]शरीर के संबंध से सदा जन्‍म-मरण को प्राप्‍त होता है। उस सबके शासक, स्‍तुति के योग्‍य, सर्वसमर्थ, सबके आदि कारण एवं सर्वत्र विराजमान परमात्‍मा को मूढ़ जीव नहीं देख पाते; किंतु योगी जन उस सनातन परमेश्र्वर का साक्षात्‍कार करते हैं।(15)
  • कोई साधन सम्‍पन्‍न हों या साधनहीन, वह ब्रह्म सब मनुष्‍यों में समानरूप से देखा जाता है। वह अपनी ओर से बद्ध और मुक्‍त दोनों के लिये समान है। अंतर इतना ही है कि इन दोनों में से जो मुक्‍त पुरुष है, वे ही आनन्‍द के मूल स्रोत परमात्‍मा को प्राप्‍त होते हैं, दूसरे नहीं। उसी सनातन भगवान का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं।(16)
  • ज्ञानी पुरुष ब्रह्मविद्या के द्वारा इस लोक और परलोक दोनों के तत्त्व को जानकर ब्रह्मभाव को प्राप्‍त होता है। उस समय उसके द्वारा यदि अग्निहोत्र आदि कर्म न भी हुए हों तो भी वे पूर्ण हुए समझे जाते हैं। राजन! यह ब्रह्मविद्या तुम में लघुता न आने दे तथा इसके द्वारा तुम्‍हें वह ब्रह्मज्ञान प्राप्‍त हो, जिसे धीर पुरुष ही प्राप्‍त करते हैं। उसी ब्रह्मविद्या के द्वारा योगी लोग उस सनातन परमात्‍मा को साक्षात्‍कार करते हैं।(17)
  • जो ऐसा महात्‍मा पुरुष है, वह भोक्‍ताभाव को अपने में विलीन करके उस पूर्ण परमेश्र्वर को जान लेता है। इस लोक में उसका प्रयोजन नष्‍ट नहीं होता अर्थात वह कृतकृत्‍य हो जाता है। उस सनातन परमात्‍मा का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं।(18)
  • कोई मनके समान वेग वाला ही क्‍यों न हो और दस लाख भी पंख लगाकर क्‍यों न उड़े, अंत में उसे हृदय स्थित परमात्मा में ही आना पड़ेगा। उस सनातन परमात्‍मा का योगी जन साक्षात्‍कार करते हैं।(19)
  • इस परमात्‍मा का स्‍वरूप सबके प्रत्‍यक्ष नहीं होता; जिनका अंत:करण विशुद्ध है, वे ही उसे देख पाते हैं। जो सबके हितैषी और मन को वश में करने वाले हैं तथा जिनके मन में कभी दु:ख नहीं होता एवं जो संसार के सब संबधों का सर्वथा त्‍याग कर देते हैं, वे मुक्‍त हो जाते हैं। उस सनातन परमात्‍मा का योगी लोग साक्षात्‍कार करते हैं।(20)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विलय
  2. जगत
  3. वहीं अंतर्यामी रूप से स्थित

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