महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 150 श्लोक 20-36

पंचाशदधिकशततम (150) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

Prev.png

महाभारत: द्रोणपर्व: पंचाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद

मेरे पितामह भीष्म राजाओं के बीच युद्धस्थल में मारे गये और अब खून से लथपथ होकर बाण शय्या पर पड़े है; परंतु मैं उनकी रक्षा न कर सका। ये परलोक विजयी दुर्घर्ष वीर भीष्म यदि मैं उनके पास जाऊं तो मुझ नीच, मित्रद्रोही तथा पापात्मा पुरुष से क्या कहेंगे? आचार्य! देखिये तो सही, मेरे लिये प्राणों का मोह छोड़कर राज्य दिलाने को उद्यत हुए महाधनुर्धर शूरवीर महारथी जलसंघ को सात्यकि ने मार डाला। काम्बोजराज, अलम्बुष तथा अन्यान्य बहुत से सुहृदों को मारा गया देखकर भी अब मेरे जीवित रहने का क्या प्रयोजन है? शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य! जो युद्ध से विमुख न होने वाले शूरवीर सुहृद मेरे लिये जूझते और मेरे शत्रुओं को जीतने के लिये यथाशक्ति पूरी चेष्टा करते हुए मारे गये हैं, उनका अपनी शक्ति भर ऋण उतारकर आज मैं यमुना के जल से उस सभी का तर्पण करूंगा।

समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ गुरुदेव! आज मैं अपने यज्ञ-यागदि तथा कुँआ, बावली बनवाने आदि शुभ कर्मों की, पराक्रम की तथा पुत्रों की शपथ खाकर आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं पाण्डवों के सहित समस्त पांचालों को युद्ध में मारकर ही शान्ति पाऊंगा अथवा मेरे वे सुहृद युद्ध में मरकर जिन लोकों में गये हैं, उसी में मैं भी चला जाउंगा। वे पुरुष शिरोमणि सुहृद रणभूमि में मेरे लिये युद्ध करते-करते अर्जुन के हाथ से मारे जाकर जिन लोकों में गये हैं, वहीं मैं भी जाउंगा।

महाबाहो! इस समय जो मेरे सहायक हैं, वे अरक्षित होने के कारण हमारी सहायता करना नहीं चाहते हैं। वे जैसा पाण्डवों का कल्याण चाहते हैं, वैसा हम लोगों का नहीं। युद्धस्थल में सत्यप्रतिज्ञ भीष्म ने स्वयं ही अपनी मृत्यु स्वीकार कर ली और आप भी हमारी इसलिये उपेक्षा करते हैं कि अर्जुन आपके प्रिय शिष्‍य हैं। इसलिये हमारी विजय चाहने वाले सभी योद्धा मारे गये। इस समय तो मैं केवल कर्ण को ही ऐसा देखता हूं, जो सच्चे हृदय से मेरी विजय चाहता है। जो मूर्ख मनुष्य मित्र को ठीक-ठीक पहचाने बिना ही उसे मित्र के कार्य में नियुक्त कर देता है, उसका वह काम बिगड़ जाता है। मेरे परम सुहृद कहलाने वालों ने मोहवश धन (राज्य) चाहने वाले मुझ लोभी, पापी और कुटिल के इस कार्य को उसी प्रकार चौपट कर दिया है। जयद्रथ और सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा मारे गये। अभीषाह, शूरसेन, शिवि तथा वसाति गण भी चल बसे। वे नरश्रेष्ठ सुहृद रणभूमि में मेरे लिये युद्ध करते करते अर्जुन के हाथ से मारे जाकर जिन लोकों में गये हैं, वहीं आज मैं भी जाउंगा। उन पुरुष रत्‍न मित्रों के बिना अब मेरे जीवित रहने का कोई प्रयोजन नहीं है। आप हम पाण्डु पुत्रों के आचार्य हैं, अतः मुझे जाने की आज्ञा दें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथवध पर्व में दुर्याधन का अनुतापविषयक एक सौ पचासवां अध्‍याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः