महाभारत वन पर्व अध्याय 33 श्लोक 17-30

त्रयस्त्रिंश (33) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


इसी दशा में यदि हम पीठ न दिखाकर युद्ध में निष्कपट भाव से लड़ते रहे और उसमें हमारा वध भी हो जाये, तो वह कल्याणकारक है; क्योंकि मरने से हमें उत्तम लोकों की प्राप्ति होगी अथवा भरतश्रेष्ठ! यदि हम ही इन शत्रुओं को मारकर सारी पृथ्वी ले लें तो वही हमारे लिये कल्याणकर है। हम अपने क्षत्रिय-धर्म के अनुष्ठान में संलग्न हो वैर का बदला लेना चाहते हैं और संसार में महान् यश का विस्तार करने की अभिलाषा रखते है, अतः हमारे लिये सब प्रकार से युद्ध करना ही उचित है। शत्रुओं ने हमारे राज्य को छिन लिया है, ऐसे अवसर पर यदि हम अपने कर्तव्य को समझकर अपने लाभ के लिये ही युद्ध करें तो भी इसके लिये जगत् में हमारी प्रशंसा ही हागी, निंदा नहीं होगी।

महाराज युधिष्ठिर! जो धर्म अपने तथा मित्रों के लिये क्लेश उत्पन्न करने वाला हो, वह तो संकट ही है। वह धर्म नहीं, कुधर्म है। तात! जैसे मुर्दों को दु:ख और सुख दोनों ही नहीं होते, उसी प्रकार जो सर्वथा और सर्वदा धर्म में ही तत्पर रहकर उनके अनुष्ठान से दुर्बल हो गया है, उसे धर्म और अर्थ दोनों त्याग देते हैं। जिसका धर्म केवल धर्म के लिये ही होता है, वह धर्म के नाम पर केवल क्लेश उठाने वाला मानव बुद्धिमान् नहीं है। जैसे अन्धा सूर्य की प्रभा को नहीं जानता, उसी प्रकार वह धर्म के अर्थ को भी नहीं समझता है। जिसका धन केवल धन के लिये है, दान आदि के लिये नहीं है, वह धन के तत्त्व को नहीं जानता। जैसे सेवक (ग्वालिया) वन में गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस धन का दूसरे के लिये रक्षकमात्र है। जो केवल अर्थ के ही संग्रह की अत्यन्त इच्छा रखने वाला है और धर्म एवं काम का अनुष्ठान नहीं करता है, वह ब्रह्म हत्यारे के समान घृणा का पात्र है और सभी प्राणियों के लिये वध्य है। इसी प्रकार जो निरन्तर काम की ही अभिलाषा रखकर धर्म और अर्थ का सम्पादन नहीं करता, उसके मित्र नष्ट हो जाते हैं (उसको त्यागकर चल देते हैं) और यह धर्म एवं अर्थ दोनों से वंचित ही रह जाता है।

जैसे पानी सूख जाने पर उसमें रहने वाली मछली की मृत्यु निश्चित है, उसी प्रकार जो धर्म अर्थ से हीन होकर केवल काम में ही रमण करता है, उस काम (भोग सामग्री) की समाप्ति होने पर उसकी भी अवश्य मृत्यु हो जाती है। इसलिये विद्वान् पुरुष कभी धर्म और अर्थ के सम्पादन में प्रमाद नहीं करते हैं। धर्म और अर्थ कामकी उत्पत्ति के स्थान हैं (अर्थात् धर्म और अर्थ से ही काम की सिद्धि होती है) जैसे अरणि अग्नि का उत्पत्ति स्थान है। अर्थ का कारण है धर्म और धर्म सिद्ध होता है अर्थ-संग्रह से। जैसे मेघ से समुद्र की पुष्टि होती है और समुद्र से मेघ की पूर्ति। इस प्रकार धर्म और अर्थ को एक-दूसरे के आश्रित समझना चाहिये। स्त्री, माला, चन्दन आदि द्रव्यों के स्पर्श और सुवर्ण आदि धन के लाभ से जो प्रसन्नता होती है, उसके लिये जो चित्त में संकल्प उठता है, उसी का नाम काम है। उस काम का शरीर नहीं देखा जाता (इसीलिये वह ‘अनंग’ कहलाता है)।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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