महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 107 श्लोक 132-144

सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 132-144 का हिन्दी अनुवाद

जिस विमान पर वह विराजमान होता है, वह आकाश के समान विशाल दिखायी देता है। सूर्य और वैदूर्यमणि के समान तेजस्वी जान पड़ता है, उसका पिछला भाग चंद्रमा के समान, वामभाग मेघ के सदृश, दाहिना भाग लाल प्रभा से युक्त, निचला भाग नीलमण्डल के समान तथा ऊपर का भाग अनेक रंगों के सम्मिश्रण से विचित्र-सा प्रतीत होता है। उसमें वह अनेक नर-नारियों के साथ सम्मानित होकर रहता है।

मेघ जम्बूद्वीप में जितने जलबिन्दुओं की वर्षा करता है, उतने हज़ार वर्षों तक उस बुद्धिमान पुरुष का ब्रह्मलोक में निवास बताया गया है। वर्षा-ऋतु में आकाश से धरती पर जितनी बूंदें गिरती हैं, उतने वर्षों तक वह देवोपम तेजस्वी पुरुष ब्रह्मलोक में निवास करता है।

दस वर्षों तक एक-एक मास उपवास करके एकतीसवें दिन भोजन करने वाला पुरुष उत्तम स्वर्गलोक को जाता है। वह महर्षि पद को प्राप्त होकर सशरीर दिव्यलोक की यात्रा करता है। जो मनुष्य सदा मुनि, जितेन्द्रिय, क्रोध को जीतने वाला, शिश्‍न और उदर के वेग को सदा काबू में रखने वाला, नियमपूर्वक तीनों अग्नियों में आहुति देने वाला और संध्योपासना में तत्पर रहने वाला है तथा जो पवित्र होकर इन पहले बताये हुए अनेक प्रकार के नियमों के पालनपूर्वक भोजन करता है, वह आकाश के समान निर्मल होता है और उसकी कान्ति सूर्य की प्रभा के समान प्रकाशित होती है।

राजन! ऐसे गुणों से युक्त पुरुष देवता के समान अपने शरीर के साथ ही देवलोक में जाकर वहाँ इच्छा के अनुसार स्वर्ग के पुण्यफल का उपभोग करता है। भरतश्रेष्ठ! यह तुम्हें यज्ञों का उत्तम विधान क्रमश: विस्तारपूर्वक बताया गया है। इसमें उपवास के फल पर प्रकाश डाला गया है। कुन्तीनन्दन! दरिद्र मनुष्यों ने इन उपवासात्मक व्रतों का अनुष्ठान करके यज्ञों का फल प्राप्त किया है। भरतश्रेष्ठ! देवताओं और ब्राह्मण की पूजा में तत्पर रहकर जो इन उपवासों का पालन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। भारत! नियमशील, सावधान, शौचाचार से सम्पन्न, महामनस्वी, दम्भ और द्रोह से रहित, विशुद्ध बुद्वि, अचल और स्थिर स्वभाव वाले मनुष्यों के लिये मैंने यह उपवास की विधि विस्तारपूर्वक बतायी है। इस विषय में तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अंतर्गत दानधर्म पर्व में उपवास की विधि नामक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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