षोडश (16) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद
अपने पुत्र के ये अश्रुगद्गद वचन सुनकर कुन्ती के नेत्रों में आँसू उमड़ आये तो भी वे रुक न सकीं। आगे बढ़ती ही गयीं। तब भीमसेन ने उनसे कहा- "माता जी! जब पुत्रों के जीते हुए इस राज्य के भोगने का अवसर आया और राजधर्म के पालन की सुविधा प्राप्त हुई, तब आपकी ऐसी बुद्धि कैसे हो गयी? यदि ऐसा ही करना था तो आपने इस भूमण्डल का विनाश क्यों करवाया? क्या कारण है कि आप हमें छोड़कर वन में जाना चाहती हैं? जब आपको वन में ही जाना था, तब आप हमको और दुःख शोक में डूबे हुए उन माद्रीकुमारों को बाल्यावास्था में वन से नगर में क्यों ले आयीं? मेरी यशस्विनी माँ! आप प्रसन्न हों। आप हमें छोड़कर वन में न जायें। बलपूर्वक प्राप्त की हुई राजा युधिष्ठिर की उस राजलक्ष्मी का उपभोग करें।" शुद्ध हृदय वाली कुन्ती देवी वन में रहने का दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं; अतः नाना प्रकार से विलाप करते हुए अपने पुत्रों का अनुरोध उन्होंने नहीं माना। सास को इस प्रकार वनवास के लिये जाती देख द्रौपदी के मुख पर भी विषाद छा गया। वह सुभद्रा के साथ रोती हुई स्वयं भी कुन्ती के पीछे-पीछे जाने लगी। कुन्ती की बुद्धि विशाल थी। वे वनवास का पक्का निश्चय कर चुकी थीं; इसलिये अपने रोते हुए समस्त पुत्रों की ओर बार-बार देखती हुई, वे आगे बढ़ती ही चली गयीं। पांडव भी अपने सेवकों और अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ उनके पीछे-पीछे जाने लगे। तब उन्होंने आँसू पोंछकर अपने पुत्रों से इस प्रकार कहा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में कुन्ती का वन का प्रस्थान विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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