महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 216 श्लोक 12-20

षोडशाधिकद्विशततम (216) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षोडशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद

जाग्रत् अवस्‍था में प्रसन्‍न इन्द्रियों के द्वारा मनुष्‍य अपने मन में जो-जो संकल्‍प करता है, स्‍वप्‍नावस्‍था आने पर भी उसका वह मन हर्षपूर्वक उसी-उसी संकल्‍प को पूर्ण होता देखा करता है। मन की सर्वत्र अबाध गति है। वह अपने अधिष्ठान भूत आत्‍मा के ही प्रभाव से सम्‍पूर्ण भूतों में व्‍याप्‍त है; अत: आत्‍मा को अवश्‍य जानना चाहिये; क्‍योंकि सभी देवता आत्‍मा में ही स्थित हैं। स्‍वप्‍न दर्शन का द्वारभूत जो स्‍थूल मानव देह है, वह सुषुप्ति अवस्‍था में मन में लीन हो जाता है। उसी देह का आश्रय ले मन अव्‍यक्‍त सदसत्‍स्‍वरूप एवं साक्षीभूत आत्‍मा को प्राप्‍त होता है। वह आत्‍मा सम्‍पूर्ण भूतों के आत्‍मभूत है।

ज्ञानी पुरुष उसे अध्‍यात्‍म गुण से युक्‍त मानते हैं। जो योगी मन के द्वारा संकल्‍प से ही ईश्‍वरीय गुण को पाना चाहता है, वह उस आत्‍मप्रसाद को प्राप्‍त कर लेता है; क्‍योंकि सम्‍पूर्ण देवता आत्‍मा में ही स्थित है। इस प्रकार तपस्‍या से युक्‍त हुआ मन अज्ञानान्‍धकार से ऊपर उठकर सूर्य के समान ज्ञानमय प्रकाश से प्रकाशित होने लगता है। जीवात्‍मा तीनों लोकों का कारणभूत ब्रह्म ही है। वह अज्ञान निवृत्ति के पश्‍चात् महेश्‍वर (विशुद्ध परमात्‍मा) रूप से प्रतिष्ठित होता है। देवताओं ने तप का आश्रय लिया है और असुरों ने तपस्‍या में विघ्‍न डालने वाले दम्‍भ, दर्प आदि तम को अपनाया हैं; परंतु ब्रह्मतत्त्व देवताओं और असुरों से छिपा हुआ है; तत्‍वज्ञ पुरुष इसे ज्ञानस्‍वरूप बताते हैं।

सत्‍वगुण, रजोगुण और तमोगुण इन्‍हें देवताओं और असुरों का गुण माना गया है। इनमें सत्‍व तो देवताओं का गुण और शेष दोनों असुरों के गुण हैं। ब्रह्म इन सभी गुणों से अतीत, अक्षर, अमृत, स्‍वयंप्रकाश और ज्ञानस्‍वरूप है। जो शुद्ध अन्‍त:करण वाले महात्‍मा उसे जानते हैं, वे परमगति को प्राप्‍त हो जाते हैं। ज्ञानमयी दृष्टि रखने वाले महापुरुष ही ब्रह्म के विषय में युक्ति संगत बात कह सकते हैं अथवा मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर एकाग्रचित्‍त हो चिन्‍तन करने से भी ब्रह्म का साक्षात्‍कार हो सकता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्‍ण सम्‍बन्‍धी अध्‍यात्‍म तत्‍व का वर्णनविषयक दो सौ सोलहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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