महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 33-46

त्रिनवतितम (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्मण दिनभर में जितना तप संग्रह करता है, उसको राजा का दिया हुआ दान वन को दग्ध करने वाले दावानल की भाँति नष्ट कर डालता है। राजन! इस दान के साथ ही आप सदा सकुशल रहें और यह सारा दान आप उन्हीं को दें, जो आपसे इन वस्तुओं को लेना चाहते हों। ऐसा कहकर वे दूसरे मार्ग से चल दिये।

तब राजा की प्रेरणा से उनके मंत्री वन में गये और गूलर के फल तोड़कर उन्हें देने की चेष्टा करने लगे। मंत्रियों ने गूलर तथा दूसरे-दूसरे वृक्षों के फल तोड़कर उनमें स्वर्ण मुद्राएँ भर दीं। फिर उन फलों को लेकर राजा के सेवक उन्हें ऋषियों के हवाले करने के लिये उनके पीछे दौड़ गये। वे सभी फल भारी हो गये थे, इस बात को महर्षि अत्रि ताड़ गये और बोले- 'गूलर हमारे लेने योग्य नहीं हैं। हमारी बुद्धि मन्द नहीं हुई है। हमारी ज्ञानशक्ति लुप्त नहीं हुई है। हम सो नहीं रहे हैं, जागते हैं। हमें अच्छी तरह ज्ञात है कि इनके भीतर सुवर्ण भरा पड़ा है। यदि आज हम इन्हें स्वीकार कर लेते हैं तो परलोक में हमें इनका कटु परिणाम भोगना पड़ेगा। जो इहलोक और परलोक में सुख चाहता हो, उसके लिये यह फल अग्राह्य है।

वसिष्ठ बोले- एक निष्क (सुवर्ण मुद्रा) का दान लेने से सौ हज़ार निष्कों के दान लेने का दोष लगता है। ऐसी दशा में जो बहुत-से निष्क ग्रहण करता है, उसको तो घोर पापमयी गति में गिरना पड़ता है।

कश्यप ने कहा- इस पृथ्वी पर जितने धान, जौ, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब किसी एक पुरुष को मिल जायें तो भी उसे संतोष न होगा; यह सोचकर विद्वान पुरुष अपने मन की तृष्णा को शांत करे।

भरद्वाज बोले- जैसे उत्पन्न हुए मृग का सींग उसके बढ़ने के साथ-साथ बढ़ता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य की तृष्णा सदा बढ़ती ही रहती है, उसकी कोई सीमा नहीं है।

गौतम ने कहा- संसार में ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जो मनुष्य की आशा का पेट भर सके। पुरुष की आशा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं।

विश्वामित्र बोले- किसी वस्तु की कामना करने वाले मनुष्य की एक इच्छा जब पूरी होती है, तब दूसरी नयी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार तृष्णा तीर की तरह मन पर चोट करती ही रहती है।

अत्रि बोले- भोगों की कामना उनके उपभोग से कभी नहीं शांत होती है। अपितु घी की आहुति पड़ने पर प्रज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है।

जमदग्नि ने कहा- प्रतिग्रह न लेने से ही ब्राह्मण अपनी तपस्या को सुरक्षित रख सकता है। तपस्या ही ब्राह्मण का धन है। जो लौकिक धन के लिये लोभ करता है, उसका तापरूपी धन नष्ट हो जाता है।

अरुन्धती बोली- संसार में एक पक्ष के लोगों की राय है कि धर्म के लिये धन का संग्रह करना चाहिये; किंतु मेरी राय में धन-संग्रह की अपेक्षा तपस्या का संचय ही श्रेष्ठ है।

गण्डा ने कहा- मेरे ये मालिक लोग अत्यन्त शक्तिशाली होते हुए भी जब इस भयंकर प्रतिग्रह के भय से इतना डरते हैं, तब मेरी क्या सामर्थ्य है? मुझे तो दुर्बल प्राणियों की भाँति इससे बहुत बड़ा भय लग रहा है।

पशुसख ने कहा- धर्म का पालन करने पर जिस धन की प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। उस धन को ब्राह्मण ही जानते हैं; अतः मैं भी उसी धर्ममय धन की प्राप्ति का उपाय सीखने के लिये विद्वान ब्राह्मणों की सेवा में लगा हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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