महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 38

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 38 का हिन्दी अनुवाद


इसके बार शंख, चक्र, गदा और खड्ग धारण करने वाले, पीताम्बरधारी, महाबली एवं महातेजस्वी श्रीकृष्ण बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वयं भी गरुड़ पर आरूढ़ हुए, मानो भगवान भास्कर उदयाचल पर आसीन हुए हों। उस समय भगवान के श्रीअंग दिव्य आभूषणों से विचित्र शोभा धारण कर रहे थे। गरुड़ पर आरूढ़ हो श्रीकृष्ण द्वारका की ओर चल दिये। राजन्! अपनी पुरी द्वारका में पहुँचकर वे यदुवंशियों के साथ ठीक वैसे ही आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे इन्द्र स्वर्गलोक में देवताओं के साथ रहते हैं। भरतश्रेष्ठ! भगवान श्रीकृष्ण ने मुर दैत्य के पाश काट दिये, निशुम्भ और नरकासुर को मार डाला और प्राग्ज्योतिषपुर का मार्ग सब लोगों के लिये निष्कण्टक बना दिया। इन्होंने अपने धनुष की टंकार और पांचजन्य शंख के हुंकार से समस्त भूपालों को आतंकित कर दिया है।

भरतकुलभूषण! भगवान केशव ने उस रुक्मी को भी भयभीत कर दिया, जिसके पास मेघों की घटा के समान असंख्य सेनाएँ हैं और जो दाक्षिणात्य सेवकों से सदा सुरक्षित रहता है। इन चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने रुक्मी को हराकर सूर्य के समान तेजस्वी तथा मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाले रथ के द्वारा भोजकुलोत्पन्न रुक्मिणी का अपहरण किया, जो इस समय इनकी महारानी के पद पर प्रतिष्ठित है। ये जारूथी नगरी में वहाँ के राजा आहुति को तथा क्राथ एवं शिशुपाल को भी परास्त कर चुके हैं। इन्होंने शैब्य, दन्तवक्र तथा शतधन्वा नामक क्षत्रियों को भी हराया है। इन्होंने इन्द्रद्युम्न, कालयवन और कशेरुमान का भी क्रोधपूर्वक वध किया है। कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने चक्र द्वारा सहस्रों पर्वतों को विदीर्ण करके द्युमत्सेन के साथ युद्ध किया। भरतश्रेष्ठ! जो बल में अग्नि और सूर्य के समान थे और वरुण देवता के उभय पार्श्व में विचरण करते तथा जिनमें पलक मारते-मारे एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँच जाने की शक्ति थी, वे गोपति और ताल केतु भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा महेन्द्र पर्वत शिखर पर इरावती नदी के किनारे पकड़ और मारे गये।

अक्षप्रपतन के अन्तर्गत नेमिहंस पथ नामक स्थान में, जो उनके अपने ही राज्यों में पड़ता था, उन दोनों को भगवान श्रीकृष्ण ने मारा था। बहुतेरे असुरों से घिरे हुए पुरश्रेष्ठ प्राग्ज्योतिष में पहुँचकर वहाँ की पर्वतमाला के लाल शिखरों पर जाकर श्रीकृष्ण ने उन लोकपाल वरुण देवता पर विजय पायी, जो दूसरों के लिये दुर्धर्ष, अजेय एवं अत्यन्त तेजस्वी हैं। पार्थ! यद्यपि इन्द्र पारिजात के लिये द्वीप (रक्षक) बने हुए थे, स्वयं ही उसकी रक्षा करते थे, तथापि महाबली केशव ने उस वृक्ष का अपहरण कर लिया। लक्ष्मीपति जनार्दन ने पाण्ड्य, पौण्ड, मत्स्य, कलिंग और अंग आदि देशों के समस्त राजाओं का एक साथ पराजित किया। यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ने केवल एक रथ पर चढ़कर अपने विरोध में खड़े हुए सौ क्षत्रिय नरेशों को मौत के घाट उतारकर गान्धारराजकुमारी शिंशुमा को अपनी महारानी बनाया। युधिष्ठिर! चक्र और गदा धारण करने वाले इन भगवान ने बभ्रु का प्रिय करने की इच्छा से वेणुदारि के द्वारा अपहृत की हुई उनकी भार्या का उद्धार किया था। इतना ही नहीं, मधुसूदन ने वेणुदारि के वंश में पड़ी हुई घोड़ों, हाथियों एवं रथों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी को भी जीत लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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