महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 39

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 39 का हिन्दी अनुवाद


भारत! जिस बाणासुर ने तपस्या द्वारा बल, वीर्य और ओज पाकर समस्त देवेश्वरों को उनके गणों सहित भयभीत कर दिया था, इन्द्र आदि देवताओं के द्वारा बारंबार वज्र, अशनि, गदा और पाशों का प्रहार करके त्रास दिये जाने पर भी समरांगण में जिसकी मृत्यु न हो सकी, उसी दैत्यराज बाणासुर को महामना भगवान गोविन्द ने उसकी सहस्र भुजाएँ काटकर पराजित एवं क्षत विक्षत कर दिया। मधु दैत्य का विनाश करने वाले इन महाबाहु जनार्दन ने पीठ, कंस, पैठक और अतिलोमा नामक असुरों को भी मार दिया। भरतश्रेष्ठ! इन महायशस्वी श्रीकृष्ण ने जम्भ, ऐरावत, विरूप और शत्रुमर्दन शम्बरासुर को (अपनी विभूतियों द्वार) मरवा डाला। भरतकुलभूषण! इन कमलनयन श्रीहरि ने भोगवतीपुरी में जाकर वासुकि नाग को हराकर राहिणीनन्दन[1] को बन्धन से छुड़ाया। इस प्रकार संकर्षण सहित कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही बहुत से अद्भुत कर्म किये थे। ये ही देवताओं और असुरों को सर्वथा अभय तथा भय देने वाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण दुष्टों का दमन करने वाले ये महाबाहु भगवान श्रीहरि अनन्त देवकार्य सिद्ध करके अपने परमधाम को पधारेंगे।

ये महायशस्वी श्रीकृष्ण मुनिजन वान्छित एवं भोगों से सम्पन्न रमणीय द्वारकापुरी को आत्मसात् करके समुद्र में विलीन कर देंगे। ये चैत्य और यूपों से सम्पन्न, परम पुण्यवती, रमणीय एवं मंगलमयी द्वारका को वन उपवनों सहित वरुणालय में डुबा देंगे। सूर्यलोक के समान कान्तिमती एवं मनोरम द्वारकापुरी को जब शांर्गधन्वा वासुदेव त्याग देंगे, उस समय समुद्र इसे अपने भीतर ले लेगा। भगवान मधुसूदन के सिवा देवताओं, असुरों और मनुष्यों में ऐसा कोई राजा न हुआ और न होगा ही, जो द्वारकापुरी में रहने का संकल्प भी कर सके। उस समय वृष्णि और अन्धकवंश के महारथी एवं उनके कान्तिमान् शिशु भी प्राण त्यागकर भगवत्सेवित परमधाम को प्राप्त करेंगे। इस प्रकार के दशार्हवंशियों के सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न करेंगे। ये स्वयं ही विष्णु, नारायण, सोम, सूर्य और सविता हैं। ये अप्रमेय हैं। इन पर किसी का नियंत्रण नहीं चल सकता। ये इच्छानुसार चलने वाले और सबको अपने वंश में रखने वाले हैं। जैसे बालक खिलौने से खेलता है, उसी प्रकार ये भगवान सम्पूर्ण प्राणियों के साथ आनन्दमयी क्रीड़ा करते हैं। ये प्रभु ना तो किसी के गर्भ में आते हैं और न किसी योनिविशेष में इनका आवास हुआ है अर्थात ये अपने आप ही प्रकट हो जाते हैं।

श्रीकृष्ण अपने ही तेज से सब की सद्‌गति करते हैं। जैसे बूंद बूंद पानी से उठकर फिर उसी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार समस्त चराचर भूत सदा भगवान नारायण से प्रकट होकर उन्हीं में विलीन हो जाते हैं। भारत! इन महाबाहु केशव की कोई इतिश्री नहीं बतायी जा सकती। इन विश्वरूप परमेश्वर से भिन्न पर और अपर कुछ भी नहीं है। यह शिशुपाल मूढ़बुद्धि पुरुष है, यह भगवान श्रीकृष्ण को सर्वत्र व्यापक तथा सर्वदा स्थिर नहीं जानता है, इसीलिए उनके सम्बन्ध में ऐसी बातें कहता है। जो बुद्धिमान मनुष्य उत्तम धर्म की खोज करता है, वह धर्म के स्वरूप को जैसा समझता है, वैसा यह चेदिराज शिशुपाल नहीं समझता। अथवा वृद्धों और बालकों सहित यहाँ बैठे हुए समस्त महात्मा राजाओं में ऐसा कौन है, जो श्रीकृष्ण को पूज्य न मानता हो या कौन है, जो इनकी पूजा न करता हो? यदि शिशुपाल इस पूजा को अनुचित मानता है, तो अब उस अनुचित पूजा के विषय में उसे जो उचित जान पड़े, वैसा करे।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में भीष्मवाक्य नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रोहिणी के गद और सारण आदि कई पुत्र थे।

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