महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 10

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 10 का हिन्दी अनुवाद


राजन! तदनन्तर भगवान विष्णु हिरण्यकशिपु के पास गये। नृसिंहरूपधारी महाबली भगवान श्रीहरि को आया देख दैत्यों ने कुपित होकर उन पर अस्त्र शस्त्रों की वर्षा आरम्भ की। उनके द्वारा चलाये हुए सभी शस्त्रों को भगवान खा गये, साथ ही उन्होंने उस युद्ध में कई हजार दैत्यों का संहार का डाला। क्रोध में भरे हुए उन सभी महाबलवान दैत्येश्वरों का विनाश करके अत्यन्त कुपित हो भगवान ने बलोन्मत्त दैत्यराज हिरण्यकशिपु पर धावा किया। भगवान नृसिंह की अंगकान्ति मेघों की घटा के समान श्याम थी। वे मेघों की गम्भीर गर्जना के समान दहाड़ रहे थे। उनका उद्दीप्त तेज भी मेघों के ही समान शोभा पाता था और वे मेघों के ही समान महान् वेगशाली थे। भगवान नृसिंह को आया देख देवताओं से द्वेष रखने वाला दुष्ट दैत्य हिरण्यकशिपु उनकी ओर दौड़ा। कुपित सिंह के समान पराक्रमी उस अत्यन्त बलशाली, दर्पयुक्त एवं दैत्यगणों से सुरक्षित दैत्य को सामने आया देख महातेजस्वी भगवान नृसिंह ने नखों के तीखे अग्रभागों के द्वारा उस दैत्य के साथ घोर युद्ध किया। फिर संध्याकाल आने पर बड़ी उतावली के साथ उसे पकड़कर वे राजभवन की देहली पर बैठ गये।

तदनन्तर उन्होंने अपनी जाँघों पर दैत्यराज को रखकर नखों से उसका वक्ष:स्थल विदीर्ण कर डाला। सुरश्रेष्ठ श्रीहरि ने वरदान से घमंड में भरे हुए महाबली महापराक्रमी दैत्यराज को बड़े वेग से मार डाला। इस प्रकार हिरण्यकशिपु तथा उसके अनुयायी सब दैत्यों का संहार करके महातेस्वी भगवान श्रीहरि ने देवताओं तथा प्रजाजनों का हितसाधन किया और इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करके वे बड़े प्रसन्न हुए। पाण्डुनन्दन! यह मैंने तुम्हें संक्षेप से नृसिंहावतार की कथा सुनायी है। अब तुम परमात्मा श्रीहरि के वामन अवतार का वृत्तान्त सुनो।

राजन्! प्राचीन त्रेतायुग की बात है, विरोचनकुमार बलि दैत्यों के राजा थे। बल में उनके समान दूसरा कोई नहीं था। बलि अत्यन्त बलावान होने के साथ ही महान् वीर भी थे। महाराज! दैत्य समूह से घिरे हुए बलि ने बड़े वेग से इन्द्र पर आक्रमण किया और उन्हें जीतकर इन्द्रलोक पर अधिकार प्राप्त कर लिया। राजा बलि के आक्रमण से अत्यन्त त्रस्त हुए इन्द्र आदि देवता ब्रह्मा जी को आगे करके क्षीरसागर के तट पर गये और सबने मिलकर देवाधिदेव भगवान नारायण का स्तवन किया। देवताओं के स्तुति करने पर श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिया और कहा जाता है, उन पर कृपा प्रसाद करने के फलस्वरूप भगवान का अदिति के गर्भ से प्रादुर्भाव हुआ। जो इस समय यदुकुल को आनन्दित कर रहे हैं, ये ही भगवान श्रीकृष्ण पहले अदिति के पुत्र होकर इन्द्र के छोटे भाई विष्णु (या उपेन्द्र) के नाम से विख्यात हुए। उन्हीं दिनों महापराक्रमी दैत्यराज बलि ने क्रतुश्रेष्ठ अश्वमेध के अनुष्ठान की तैयारी आरम्भ की। युधिष्ठिर! जब दैत्यराज का यज्ञ आरम्भ हो गया, उस समय भगवान विष्णु ब्राह्मण वेषधारी वामन ब्रह्मचारी के रूप में अपने को छिपाकर सिर मुँड़ाये, यज्ञोपवीत, काला मृगचर्म और शिखा धारण किये, हाथ में पलाश का डंडा लिये उस यज्ञ में गये। उस समय भगवान वामन की अद्भुत शोभा दिखायी देती थी। बलि के वर्तमान यज्ञ में प्रवेश करके उन्होंने दैत्यराज से कहा- ‘मुझे तीन पग भूमि दक्षिणारूप में दीजिये। केवल तीन पग भूमि मुझे दे दीजिये’ ऐसा कहकर उन्होंने महान असुर बलि से याचना की। बलि ने भी ‘तथास्तु’ कहकर श्रीविष्णु को भूमि दे दी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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