महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 9

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 9 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मा जी बोले- देवताओ! सुनो, ऐसी विपत्ति को समझना मेरे लिये भी अत्यनत कठिन है। अन्तर्यामी भगवान नारायण ही हमारी सहायता कर सकते हैं। वे विश्वरूप, महातेजस्वी, अव्यक्तस्वरूप, सर्वव्यापी, अविनाशी तथा सम्पूर्ण भूतों के लिये अचिन्त्य हैं। संकट काल में मेरे और तुम्हारे वे ही परम गति हैं। भगवान नारायण अव्यक्त से परे हैं और मेरा आविर्भाव अव्यक्त से हुआ है। मुझसे समस्त प्रजा सम्पूर्ण लोक तथा देवता और असुर भी उत्पन्न हुए हैं। देवताओ! जैसे मैं तुम लोगों का जनक हूँ, उसी प्रकार भगवान नारायण मेेरे जनक हैं। मैं सबका पितामह हूँ और वे भगवान विष्णु प्रपितामह हैं। देवताओं! इस हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वे विष्णु ही संहार करेंगे। उनके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है, अत: सब लोग उन्हीं की शरण में जाओ, विलम्ब न करो।

भीष्म कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! पितामह ब्रह्मा का यह वचन सुनकर सब देवता उनके साथ ही क्षीर समुद्र के तट पर गये। आदित्य, मरुद्गण, साध्य, विश्वेदेव, वसु, रुद्र, महर्षि, सुन्दर रूप वाले अश्विनी कुमार तथा अन्यान्य जो दिव्य योनि के पुरुष हैं, वे सब अर्थात अपने गणों सहित समस्त देवता चतुर्मुख ब्रह्मा जी को आगे करके श्वेतद्वीप में उपस्थित हुए। क्षीरसमुद्र के तट पर पहुँचकर सब देवता अनन्त नामक शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले अनन्त एवं उद्दीप्त तेज से प्रकाशमान उन शरणागत वत्सल सनातन देवता श्रीविष्णु के सम्मुख उपस्थित हुए, जो सबके सनातन परम गति हैं। वे प्रभु देवस्वरूप, वेदमय, यज्ञरूप, ब्राह्मण को देवता मानने वाले, महान् बल और पराक्रम के आश्रय, भूत, वर्तमान और भविष्य रूप, सर्वसमर्थ, विश्ववन्दित, सर्वव्यापी, दिव्य शक्तिसम्पन्न तथा शरणागत रक्षक हैं। वे सब देवता उन्हीं भगवान नारायण की शरण में गये।

देवता बोले- देवेश्वर! आज आप हिरण्यकशिपु का वध करके हमारी रक्षा कीजिये। सुरश्रेष्ठ! आप ही हमारी और ब्रह्मा आदि के भी धारण पोषण करने वाले परमेश्वर हैं। खिले हुए कमल दल के समान नेत्रों वाले नारायण! आप शत्रुपक्ष को भय प्रदान करने वाले हैं। प्रभो! आज आप दैत्यों का विनाश करने के लिये उद्यत हो हमारे शरणदाता होइये।

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! देवताओं की यह बात सुनकर पवित्र कीर्ति वाले भगवान विष्णु ने उस समय सम्पूर्ण भूतों से अदृश्य रहकर बोलना आरम्भ किया। श्रीभगवान बोले- देवताओं! भय छोड़ दो। मैं तुम्हें अभय देता हूँ। देवगण! तुम लोग अविलम्ब स्वर्गलोक में जाओ और पहले की ही भाँति वहाँ निर्भय होकर रहो। मैं वरदान पाकर घमंड में भरे हुए दानवराज हिरण्यकशिपु को, जो देवेश्वरों के लिये भी अवध्य हो रहा है, सेवकों सहित अभी मार डालता हूँ।

ब्रह्मा जी ने कहा- भूत, भविष्य, और वर्तमान के स्वामी नारायण! ये देवता बहुत दुखी हो गये हैं, अत: आप दैत्यराज हिरण्यकशिपु को शीघ्र मार डालिये। उसकी मृत्यु का समय आ गया है, इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये।

श्रीभगवान बोले- ब्रह्मा तथा देवताओं! मैं शीघ्र ही उस दैत्य का नाश करूँगा, अत: तुम सब लोग अपने-अपने दिव्यलोक में जाओ।

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा कहकर भगवान विष्णु ने देवेश्वरों को विदा करके आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का सा बनाकर नरसिंह विग्रह धारण करके एक हाथ से दूसरे हाथ को रगड़ते हुए बड़ा भयंकर रूप बना लिया। वे महातेजस्वी नरसिंह मुँह बाये हुए काल के समान जान पड़ते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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