द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-4 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण जगत को अपने से उत्पन्न बतलाकर धर्मनन्दन युधिष्ठिर से पवित्र धर्मों का इस प्रकार वर्णन आरम्भ किया- ‘पाण्डुनन्दन! मेरे द्वारा कहे हुए धर्मशास्त्र का पुण्यमय, पापनाशक, पवित्र और महान फल यथार्थ-रूप से सुनो- युधिष्ठिर! जो मनुष्य पवित्र और एकाग्रचित्त होकर तपस्या में संलग्न हो स्वर्ग, यश और आयु प्रदान करने वाले जानने योग्य धर्म का श्रवण करता है, उस श्रद्धालु पुरुष के- विशेषत: मेरे भक्त के पूर्व संचित जितने पाप होते हैं, वे सब तत्काल नष्ट हो जाते हैं।’ वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! श्रीकृष्ण का यह परम पवित्र और सत्य वचन सुनकर मन-ही-मन प्रसन्न हो धर्म के अद्भुत रहस्य का चिन्तन करते हुए सम्पूर्ण देवर्षि, ब्रह्मर्षि, गन्धर्व, अप्सराएं, भूत, यक्ष, ग्रह, गुह्यक, सर्प, महात्मा बालखिल्यगण, तत्त्वदर्शी योगी तथा पांचों उपासना करने वाले भगवद्भक्त पुरुष उत्तम वैष्णव-धर्म का उपदेश सुनने तथा भगवान की बात हृदय में धारण करने के लिये अत्यन्त उत्कण्ठित होकर वहाँ आये। उनके इन्द्रिय और मन अत्यन्त हर्षित हो रहे थे। आने के बाद उन सबने मस्तक झुकाकर भगवान को प्रणाम किया। भगवान की दिव्य दृष्टि पड़ने से वे सब निष्पाप हो गये। उन्हें उपस्थित देखकर महाप्रतापी धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने भगवान को प्रणाम करके इस प्रकार धर्म विषयक प्रश्न किया। युधिष्ठिर ने पूछा- 'देवेश्वर! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की पृथक-पृथक कैसी गति होती है?' श्रीभगवान ने कहा- 'नरश्रेष्ठ धर्मराज! ब्राह्मणादि वर्णों के क्रम से धर्म का वर्णन सुनो। ब्राह्मण के लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। जो ब्राह्मण शिखा और यज्ञोपवीत धारण करते हैं, संध्योपासना करते हैं, पूर्णाहुति देते हैं, विधिवत अग्निहोत्र करते हैं, बलिवैश्वदेव और अतिथियों का पूजन करते हैं, नित्य स्वाध्याय में लगे रहते हैं तथा जप-यज्ञ के परायण है; जो प्रात:काल और सांयकाल होम करने के बाद ही अन्न ग्रहण करते हैं, शूद्र का अन्न नहीं खाते हैं, दम्भ और मिथ्या भाषण से दूर रहते हैं, अपनी ही स्त्री से प्रेम रखते हैं तथा पंच यज्ञ और अग्निहोत्र करते रहते हैं, जिनके सब पापों को हवन की जाने वाली तीनों अग्नियाँ भस्म कर देती हैं, वे ब्राह्मण पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं। क्षत्रियों में भी जो राज्य सिंहासन पर आसीन होने के बाद अपने धर्म का पालन और प्रजा की भली-भाँति रक्षा करता है, लगान के रूप में प्रजा की आमदनी का छठा भाग लेकर सदा उतने से ही संतोष करता है। यज्ञ और दान करता रहता है, धैर्य रखता है, अपनी स्त्री से संतुष्ट रहता है, शास्त्र के अनुसार चलता है, त को जानता है और प्रजा की भलाई के कार्य में संलग्न रहता है तथा ब्राह्मणों की इच्छा पूर्ण करता है, पोष्य वर्ग के पालन में तत्पर रहता है, प्रतिज्ञा को सत्य करके दिखाता है, सदा पवित्र रहता है एवं लोभ और दम्भ को त्याग देता है, उस क्षत्रिय को भी देवताओं द्वारा सेवित उत्तम गति की प्राप्ति होती है, यज्ञ और दान करता रहता है, धैर्य रखता है, अपनी स्त्री से संतुष्ट रहता है, शास्त्र के अनुसार चलता है, तत्त्व को जानता है और प्रजा की भलाई के कार्य में संलग्न रहता है तथा ब्राह्मणों की इच्छा पूर्ण करता है, पोष्य वर्ग के पालन में तत्पर रहता है, प्रतिज्ञा को सत्य करके दिखाता है, सदा पवित्र रहता है एवं लोभ और दम्भ को त्याग देता है, उस क्षत्रिय को भी देवताओं द्वारा सेवित उत्तम गति की प्राप्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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