द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-5 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर! ब्रह्मा जी ने इस जगत् में जिस वर्ण के लिये जैसे धर्म का विधान किया है, वह वैसे ही धर्म का भली-भाँति आचरण करके अपने पापों को नष्ट कर सकता है। मनुष्य को जातिगत कर्म हो, उसका किसी को त्याग नहीं करना चाहिये। वही उसके लिये धर्म होता है और उसी का निष्काम भाव से आचरण करने पर मनुष्य को सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त हो जाती है। अपना धर्म गुण रहित होने पर भी पाप को नष्ट करता है। इसी प्रकार यदि मनुष्य के पाप की वृद्धि होती है तो वह उसके धर्म को क्षीण कर डालता है।' युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन! देवदेवेश्वर! शुभ और अशुभ की वृद्धि और ह्रास क्रम से किस प्रकार होते हैं, इसे सुनने की मेरी बड़ी उत्कण्ठा है। श्रीभगवान ने कहा- 'राजन! तुमने जो धर्म का तत्त्व पूछा है, वह सूक्ष्म, सनातन, अत्यन्त दुर्विज्ञेय और नित्य है, बड़े-बड़े लोग भी उसमें मग्न हो जाते हैं, वह सब तुम सुनो। जिस प्रकार थोड़े-से ठंडे जल को बहुत गरम जल में मिला दिया जाता है तो वह तत्क्षण गरम हो जाता है और उसका ठंडापन नष्ट हो जाता है। जब थोड़ा सा गरम जल बहुत शीतल जल में मिला दिया जाता है, तब वह सब-का-सब शीतल हो जाता है और उसकी उष्णता नष्ट हो जाती है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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