महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 318 श्लोक 95-112

अष्‍टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 95-112 का हिन्दी अनुवाद


उन्‍होंने सत्‍कारपूर्वक मुनि की प्रदक्षिणा करके उन्‍हें विदा किया। जब वे मुनिवर याज्ञवल्‍क्‍य चले गये, तब मोक्ष के ज्ञाता देवरातनन्‍दन राजा जनक ने वहीं बैठे-बैठे एक करोड़ गौएँ छूकर ब्राह्मणों को दान कर दीं तथा प्रत्‍येक ब्राह्मण को एक-एक अंजलि रत्‍न और सुवर्ण प्रदान किये। इसके बाद मिथिलानरेश ने विदेहदेश का राज्‍य अपने पुत्र को सौंप दिया और स्‍वयं वे यति-धर्म का पालन करते हुए वहाँ रहने लगे। राजेन्‍द्र! नरेश्‍वर! उन्‍होंने सम्‍पूर्ण सांख्‍य, ज्ञान और योगशास्‍त्र का स्‍वाध्‍याय करके प्राकृत धर्म और अधर्म को त्‍याज्‍य मानते हुए यह निश्‍चय किया कि 'मैं अनन्‍त हूँ ।' ऐसा निश्‍चय करके वे धर्म-अधर्म, पुण्‍य-पाप, सत्‍य-असत्‍य तथा जन्‍म और मृत्‍यु व्‍यक्‍त (बुद्धि आदि) और अव्‍यक्‍त (प्रकृति) का कार्य मानकर सबको प्राकृत (प्रकृतिजन्‍य एवं मिथ्‍या) समझते हुए प्रकृति संसर्ग से रहित अपने शुद्ध एवं नित्‍य स्‍वरूप का ही चिन्‍तन करने लगे। युधिष्ठिर! सांख्‍य और योग के विद्वान् अपने-अपने शास्‍त्रों में वर्णित लक्षणों के अनुसार ऐसा देखते और समझते हैं कि वह ब्रह्मा इष्‍ट और अनिष्‍ट से मुक्‍त, अचल-भाव से स्थित एवं परात्‍पर है। विद्वान् पुरुष उस ब्रह्मा को नित्‍य एवं पवित्र बताते हैं; अत: तुम भी उसे जानकर पवित्र हो जाओ। नरश्रेष्‍ठ! जो कुछ दिया जाता है, जो दी हुई वस्‍तु किसी को प्राप्‍त होती है, जो दान का अनुमोदन करता है, जो देता है तथा जो उस दान को ग्रहण करता है, वह सब अव्‍यक्‍त परमात्‍मा ही है। यह सब कुछ देता और लेता है। युधिष्ठिर! एक मात्र परमात्‍मा ही अपना है। उससे बढ़कर आत्‍मीय दूसरा कौन हो सकता है। तुम सदा ऐसा ही मानो और इसके विपरीत दूसरी किसी बात का चिन्‍तन न करो। जिसे अव्‍यक्‍त प्रकृति का ज्ञान न हुआ हो, सगुण-निर्गुण परमात्‍मा की पहचान न हुई हो, उस विद्वान् को तीर्थो का सेवन और यज्ञों का अनुष्‍ठान करना चाहिये। कुरुनन्‍दन! स्‍वाध्‍याय, तप अथवा यज्ञों द्वारा मोक्ष या परमात्‍मपद की प्राप्ति नहीं होती ( ये तो उनके तत्‍व को जानने में सहायक होते हैं )। इनके द्वारा परमात्‍मा का स्‍पष्‍ट (अपरोक्ष) ज्ञान प्राप्‍त करके ही मनुष्‍य महिमान्वित होता है। महतत्‍व की उपासना करने वाले महतत्‍व को और अहंकार के उपासक अहंकार को प्राप्‍त होते हैं; परंतु महतत्‍व और अहंकार से भी श्रेष्‍ठ जो स्‍थान हैं, उन्‍हें प्राप्‍त करना चाहिये। जो शास्‍त्रों के स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर होते हैं, वे ही प्रकृति से पर, नित्‍य, जन्‍म-मृत्‍यु से रहित, मुक्‍त एवं सदसत्‍स्‍वरूप परमात्‍मा का ज्ञान प्राप्‍त करते हैं। युधिष्ठिर! यह ज्ञान मुझे पूर्वकाल में राजा जनक से मिला था और जनक को याज्ञवल्‍क्‍य से प्राप्‍त हुआ था। ज्ञान सबसे उत्‍तम साधन है। यज्ञ इसकी समानता नहीं कर सकते। ज्ञान से ही मनुष्‍य इस दुर्गम संसार-सागर से पार हो सकता है; यज्ञों द्वारा नहीं। राजन्! ज्ञानी पुरुष कहते है कि भौतिक जन्‍म आदि मृत्‍यु को पार करना अत्‍यन्‍त कठिन है। यज्ञ आदि के द्वारा भी मनुष्‍य उस दुर्गम संकट से पार नहीं हो सकता। यज्ञ, तप, नियम और व्रतों द्वारा तो लोग स्‍वर्गलोक में जाते और पुण्‍य क्षीण होने पर फिर इस पृथ्‍वी पर गिर पड़ते हैं। इसलिये तुम प्रकृति से पर, महत्, पवित्र, कल्‍याणमय, निर्मल, शुद्ध तथा मोक्षस्‍वरूप ब्रह्मा की उपासना करो। पृथ्‍वीनाथ! क्षेत्र को जानकर और ज्ञानयज्ञ का आश्रय लेकर तुम निश्‍चय ही तत्‍वज्ञानी ऋषि बन जाओगे। पूर्वकाल में याज्ञवल्‍क्‍य मुनि ने राजा जनक को किस उपनिषद् (ज्ञान) का उपदेश दिया था, उसका मनन करने से मनुष्‍य पूर्वकथित सनातन अविनाशी, शुभ, अमृतमय तथा शोकरहित पर ब्रह्मा परमात्‍मा को प्राप्‍त हो जाता है।

इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद की समाप्तिविषयक तीन सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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