अष्टादशाधिकत्रिशततम (318) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 83-94 का हिन्दी अनुवाद
विश्वावसु ने कहा—प्रभो! आपने सब देवताओं के आदि कारण ब्रह्मा के विषय में जो यथावत् वर्णन किया है, वह सत्य, शुभ, सुन्दर तथा परम मंगलकारी है। आपका मन सदा ही इसी प्रकार ज्ञान में स्थित रहे तथा आपको नित्य अक्षय कल्याण की प्राप्ति हो (अच्छा, अब मैं जाता हूँ)। याज्ञवल्क्यजी ने कहा—राजन्! ऐसा कहकर महामना गन्धर्वराज विश्वावसु अपने कान्तिमान् दर्शन से प्रकाशित होते हुए मेरी परिक्रमा और अभिनन्दन करके स्वर्गलोक को चले गये। उस समय मैंने भी बड़े संतोष से उनकी और देखा था। राजा जनक! आकाश में विचरने वाले जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, पृथ्वी पर निवास करने वाले जो मनुष्य हैं तथा जो पृथ्वी से नीचे के लोकों में रहते हैं, उनमें से जो लोग कल्याणमय मोक्षमार्ग का आश्रय लिये हुए थे, उन सबको उन्हीं स्थानों में जाकर विश्वावसुने मेरे बताये हुए इस सम्यक्-दर्शन का उपदेश दिया था। सांख्यधर्म में तत्पर रहने वाले सम्पूर्ण सांख्यवेत्ता, योग-धर्मपरायण योगी तथा दूसरे जो मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले मनुष्य हैं, उन सबको यह उपदेश ज्ञान का प्रत्यक्ष फल देने वाला है। राजाओं में सिंह के समान पराक्रमी नरेन्द्र! ज्ञान से ही मोक्ष होता है, अज्ञान से नहीं— ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं। इसलिये यथार्थ ज्ञान का अनुसंधान करना चाहिये, जिससे अपने-आप को जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ाया जा सके। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच वर्ण में उत्पन्न हुए पुरुष से भी यदि ज्ञान मिलता हो तो उसे प्राप्त करके श्रद्धालू मनुष्य को सदा उस पर श्रद्धा रखनी चाहिये। जिसके भीतर श्रद्धा है, उस मनुष्य में जन्म-मृत्यु का प्रवेश नहीं हो सकता। ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण सभी वर्ण ब्राह्मण हैं। सभी सदा ब्रह्मा का उच्चारण करते हैं। मैं ब्रह्माबुद्धि से यथार्थ शास्त्र का सिद्वान्त बता रहा हूँ। सम्पूर्ण जगत्, यह सारा दृश्य प्रपंच ब्रह्मा ही है। ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए हैं, ब्रह्मा की ही भुजाओं से क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई है, ब्रह्मा की ही नाभि से वैश्य और पैरों से शुद्र प्रकट हुए हैं, अत: सभी वर्ण के लोग ब्रह्मारूप ही हैं। किसी भी वर्ण का ब्रह्मा से भिन्न नहीं समझना चाहिये। राजन्! मनुष्य अज्ञान के कारण ही कर्मानुष्ठान से भिन्न- भिन्न योनियों में जन्म लेते और मरते हैं। ज्ञानहीन मनुष्य ही अपने भयंकर अज्ञान के कारण नाना प्रकार की प्राकृत योनियों में गिरते हैं। नरेन्द्र! अत: सब ओर से ज्ञान प्राप्त करने का ही प्रयत्न करना चाहिये। यह तो मैं तुमसे बता ही चुका हूँ कि सभी वर्णो के लोग अपने-अपने आश्रम में रहते हुए ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं; अत: जो ब्राह्मण ज्ञान में स्थित है अथवा जो दूसरे वर्ण का मनुष्य भी ज्ञाननिष्ठ है, उसके लिये नित्य मोक्ष की प्राप्ति बतायी गयी है। राजन्! तुमने जो पूछा था उसके उत्तर में मैंने तुम्हें यथार्थ ज्ञान का उपदेश किया है; अत: अब तुम शोकरहित हो जाओ और इस तत्वज्ञान मे पारंगत बनो। मैंने तुम्हें ज्ञान का भलीभाँति उपदेश कर दिया है। जाओ, तुम्हारा सदा कल्याण हो। भीष्मजी कहते हैं—युधिष्ठिर! बुद्धिमान् याज्ञवल्क्यजी के इस प्रकार उपदेश देने पर मिथिलापति राजा जनक उस समय बहुत प्रसन्न हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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