महाभारत: द्रोण पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 25-45 का हिन्दी अनुवाद
उन समस्त सैनिकों को बार-बार बाणों की आग से दग्ध करते देख विराट के छोटे भाई शतानीकद्रोणाचार्य पर चढ़ आये। (25)
उन्होंने कारीगर के द्वारा स्वच्छ किये हुए सूर्य की किरणों के समान चमकीले छ: बाणों द्वारा सारथि और घोड़ों सहित द्रोणाचार्य को घायल करके बड़े जोर से गर्जना की। (26)
तत्पश्चात दुष्कर पराक्रम करने की इच्छा से क्रूरतापूर्ण कर्म करने के लिये तत्पर हो उन्होंने महारथी द्रोणाचार्य पर सौ बाणों की वर्षा की। (27)
तब द्रोणाचार्य ने वहाँ गर्जना करते हुए शतानीक के कुण्डल सहित मस्तक को क्षुर नामक बाण द्वारा तुरंत ही धड़ से काट गिराया। यह देख मत्स्य देश के सैनिक भाग खड़े हुए। (28)
इस प्रकार भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य ने मत्स्यदेशीय योद्धाओं को जीतकर चेदि, करूष, केकय, पांचाल, सृंजय तथा पाण्डव सैनिकों को भी बारंबार परास्त किया। (29)
जैसे प्रज्वलित अग्नि सारे वन को जला देती है, उसी प्रकार क्रोध में भरकर शत्रु की सेनाओं को दग्ध करते हुए सुवर्णमय रथ वाले वीर द्रोणाचार्य को देखकर सृंजयवंशीक्षत्रिय काँपने लगे। (30)
उत्तम धनुष लेकर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने और शत्रुओं का वध करने वाले द्रोणाचार्य की प्रत्यंचा का शब्द सम्पूर्ण दिशाओं में सुनायी पड़ता था। (31)
शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले द्रोणाचार्य के छोड़े हुए भयंकर सायक हाथियों, घोड़ों, पैदलों, रथियों और गजारोहियों को मथे डालते थे। (32)
जैसे हेमन्त ऋतु के अन्त में अत्यन्त गर्जना करता हुआ वायु युक्त मेघ पत्थरों की वर्षा करता है, उसी प्रकार द्रोणाचार्य शत्रुओं को भयभीत करते हुए उनके ऊपर बाणों की वर्षा करते थे। (33)
बलवान, शूरवीर, महाधनुर्धर और मित्रों को अभय प्रदान करने वाले द्रोणाचार्य सारी सेना में हलचल मचाते हुए सम्पूर्ण दिशाओं में विचर रहे थे। (34)
जैसे बादलों में बिजली चमकती है, उसी प्रकार अमित तेजस्वी द्रोणाचार्य के सुवर्णभूषित धनुष को हम सम्पूर्ण दिशाओं में चमकता हुआ देखते थे। (35)
भरतनन्दन! युद्ध में तीव्र वेग से विचरते हुए आचार्य द्रोण के ध्वज में जो वेदी का चिन्ह बना हुआ था, वह हमें हिमालय के शिखर की भाँति शोभायमान दिखायी देता था। (36)
जैसे देव-दानववन्दित भगवान विष्णुदैत्यों की सेना में भयानक संहार मचाते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य ने पाण्डव सेना में भारी मारकाट मचा रखी थी। (37)
उन शौर्यसम्पन्न, सत्यवादी, विद्वान, बलवान और सत्यपराक्रमी महानुभाव द्रोण ने उस युद्धस्थल में रक्त की भयंकर नदी बहा दी,जो प्रलयकाल की राशि के समान जान पड़ती थी। वह नदी भीरू पुरुषों को भयभीत करने वाली थी। उसमें कवच लहरें और ध्वजाएँ भँवरें थी। वह मनुष्यरूपी तटों को गिरा रही थी। हाथी और घोड़े उसके भीतर बड़े-बड़े़ ग्राहों के समान थे। तलवारें मछलियाँ थीं। उसे पार करना अत्यन्त कठिन था। वीरों की हड्डियाँ बालू और कंकड़-सी जान पड़ती थीं। वह देखने में बड़ी भयानक थी। ढोल और नगाड़े उसके भीतर कछुए-से प्रतीत होते थे। ढाल और कवच उसमें डोंगियों के समान तैर रहे थे। वह घोर नदी केशरूपी सेवार और घास से युक्त थी। बाण ही उसके प्रवाह थे। धनुष स्त्रोत के समान प्रतीत होते थे। कटी हुई भुजाएँ पानी के सर्पों के समान वहाँ भरी हुई थी। वह रणभूमि के भीतर तीव्र वेग से प्रवाहित हो रही थी। कौरव और सृंजय दोनों को वह नदी बहाये लिये जाती थी। मनुष्यों के मस्तक उसमें प्रस्तर-खण्ड का भ्रम उत्पन्न करते थे। शक्तियाँ मीन के समान थीं। गदाएँ नाक थीं। उष्णीष-वस्त्र[1] फेन के तुल्य चमक रहे थे। बिखरी हुई आँतें सर्पाकार प्रतीत होती थीं। वीरों का अपहरण करने वाली वह उग्र नदी मांस तथा रक्तरूपी कीचड़ से भरी थी। हाथी उसके भीतर ग्राह थे। ध्वजाएँ वृक्ष के तुल्य थीं। वह नदी क्षत्रियों को अपने भीतर डुबोने वाली थी। वहाँ क्रूरता छा रही थी। शरीर[2] ही उसमें उतरने के लिये घाट थे। योद्धागण मगर-जैसे जान पड़ते थे। उसको पार करना बहुत कठिन था। वह नदी लोगों को यमलोक में ले जाने वाली थी। मांसाहारी जन्तु उसके आस-पास डेरा डाले हुए थे। वहाँ कुत्ते और सियारों के झुंड जुटे हुए थे। उसके सब ओर महाभयंकर मांस-भक्षी पिशाच निवास करते थे। (38-45)