महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 201 श्लोक 78-94

एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: 78-94 श्लोक का हिन्दी अनुवाद

आप जीवात्‍मा से अभिन्‍न अनुभव किये जाने वाले सबके आत्मा हैं, ऐसा जानने वाला विद्वान पुरुष विशुद्ध ब्रह्मभाव को प्राप्‍त होता है। देववर्य! मैंने आपके सत्‍कार की शुभ इच्‍छा लेकर यह स्‍तवन किया है। स्‍तुति के सर्वथा योग्‍य आप परमेश्‍वर का मैं चिरकाल से अन्‍वेषण कर रहा था। था जिनकी भलीभाँति स्‍तुति की गयी हैं ऐसे आप अपनी माया को दूर कीजिये और मुझे अभीष्‍ट दुर्लभ वर प्रदान कीजिये।

व्यास जी कहते हैं- द्रोणकुमार! नारायण ऋषि के इस प्रकार स्तुति करने पर अचित्य स्वरूप, पिनाकधारी, नील कण्ट भगवान शिव ने घर पाने के सर्वथा योग्य उन देवप्रधान नारायण को बहुत से घर दिये। श्री भगवान बोले- नारायण! तुम मेरे कृपा प्रसाद से मनुष्यों, देवताओं तथा गन्धर्वों में भी असीम बल पराक्रम से सम्पन्न होओगे। देवता, असुर, बड़े-बड़े सर्प, पिशाच, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सुपर्ण, नाग तथा समस्त पशुयोनि के सिंह, व्याघ्र आदि प्राणी भी तुम्हारा वेग नहीं सह सकेंगे। युद्ध स्थलों में कोई देवता भी तुम्हें जीत नहीं सकेगा। शस्त्र, वज्र, अग्नि, वायु, गीले सूखे पदार्थ और स्थावर एवं जगंम प्राणी के द्वारा भी कोई मेरी कृपा से किसी प्रकार तुम्हें चोट नहीं पहुँचा सकता। तुम समरभूमि में पहुँचने पर मुझसे भी अधिक बलवान हो जाओेगे।

तुझे मालूम होना चाहिये, इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पहले ही भगवान शंकर से ये अनेक वरदान पा लिये हैं। वे ही भगवान नारायण श्रीकृष्ण के रूप में अपनी माया से इस संसार को मोहित करते हुए विचर रहे हैं।। नारायण के ही तप से महामुनि नर प्रकट हुए हैं, जो इन भगवान के ही समान शक्तिशाली हैं। तू अर्जुन को सदा उन्हीं भगवान नर का अवतार समझ। ये दोनो ऋषि प्रमुख देवता, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र में से विष्णु स्वरूप हैं और तपस्या में बहुत बढ़े चढ़े हैं। ये लोगों को धर्म मर्यादा में रखकर उनकी रक्षा के लिये युग-युग में अवतार ग्रहण करते हैं। महामते! तू भी भगवान नारायण के ही समान ज्ञानवान होकर उनके ही जैसे सत्कर्म तथा बड़ी भारी तपस्या करे उसके प्रभाव से पूर्ण तेज और क्रोध धारण करने वाला रुद्र भक्त हुआ था और सम्पूर्ण जगत को शंकर मय जानकर उन्हें प्रसन्न करने की इच्छा से तूने नाना प्रकार के कठोर नियमों का पालन करते हुए अपनी शरीर को दुर्बल कर डाला था। मानद! तूने यहाँ परम पुरुष भगवान शंकर के उज्ज्वल विग्रह की स्थापना करके होम, जप और उपहारों द्वारा उनकी आराधना की थी। विदवान! इस प्रकार पूर्वजन्म के शरीर में तुझसे पूजित होकर भगवान शंकर बड़े प्रसन्न हुए थे और उन्होंने तुझे बहुत से मनोवान्छित वर प्रदान किये थे। इस प्रकार तेरे और नर नारायण के जन्म, कर्म, तप और योग पर्याप्त हैं। नर नारायण ने शिवलिंग में तथा तूने प्रतिमा में प्रत्येक युग में महादेव जी की आराधना की है जो भगवान शंकर को सर्वस्वरूप जानकर शिवलिंग में उनकी पूजा करता है, उसमें सनातन आत्मयोग तथा शास्त्र योग प्रतिष्ठित होते हैं। इस प्रकार आराधना करते हुए देवता, सिध्द और महर्षिगण लोक में एकमात्र सर्वोत्‍कृष्‍ट भगवान शंकर ही अभीष्‍ट वस्‍तु की प्रार्थना करते हैं; क्‍योंकि वे ही सब कुछ करने वाले हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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