महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 201 श्लोक 95-100

एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: द्रोण पर्व (नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व)

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महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: 95-100 श्लोक का हिन्दी अनुवाद

ये श्रीकृष्‍ण भगवान शंकर के भक्त हैं और उन्‍हीं से प्रकट हुए है; अतः यज्ञों द्वारा सनातन पुरुष श्रीकृष्‍ण की ही आराधना करनी चाहिये। जो भगवान शिव के लिंग को सम्‍पूर्ण भूतों की उत्‍पत्ति का स्‍थान जानकर उसकी पूजा करता है, उस पर भगवान शंकर अधिक प्रेम करते हैं।

संजय कहते हैं— राजन! व्‍यास जी की यह बात सुनकर द्रोण पुत्र महारथी अश्वत्‍थामा ने मन ही मन भगवान शंकर को प्रणाम किया और श्रीकृष्‍ण की भी महत्‍ता स्‍वीकार कर ली। उसके शरीर में रोमांच हो आया। उसने विनीत भाव से महर्षि को प्रणाम किया और अपनी सेना की ओर देखकर उसे छावनी में लौटने की आज्ञा दे दी। प्रजानाथ! तदनन्‍तर युद्धस्‍थल में द्रोणाचार्य के मारे जाने के बाद पाण्‍डवों तथा दीन कौरवों की सेनाएँ अपने अपने शिविर की ओर चल दी। राजन! इस प्रकार वेदों के पारंगत विद्वान द्रोणाचार्य पाँच दिनों तक युद्ध तथा शत्रु सेना का संहार करके ब्रह्मलोक को चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत नारयणा स्‍त्र्मोक्षपर्व में व्‍यासवाकय तथा शतरुद्रिय स्‍तुतिविषयक दो सौ एकवाँ अध्‍याय पूरा हआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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