महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 60 श्लोक 1-13

षष्टितम (60) अध्याय: द्रोण पर्व ( अभिमन्‍युपर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

राजा भगीरथ का चरित्र

  • नारद जी कहते हैं– सृंजय! हमारे सुनने में आया है कि राजा भगीरथ भी मर गये, जिन्‍होंने अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिये इस भूतल पर गंगा जी को उतारा था। जिन महामना नरेश के बाहुबल से इन्‍द्र बहुत प्रसन्‍न थे, जिन्‍होंने प्रचुर एवं उत्‍तम दक्षिणा से युक्‍त हविष्‍य, मंत्र और अन्‍न से समपन्‍न सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्‍ठान किया और देवताओं का आनन्‍द बढ़ाया, जिनके महान यज्ञ में इन्‍द्र सोमरस पीकर मदोन्‍मत्‍त हो उठे थे तथा जिनके महान यज्ञ में रहकर लोकपूजित भगवान देवेन्‍द्र ने अपने बाहुबल से अनेक सहस्‍त्र असुरों को पराजित किया, उन्‍हीं राजा भगीरथ ने यज्ञ करते समय गंगा के दोनों किनारों पर सोने की ईंटों के घाट बनवाये। (1)
  • इतना ही नहीं, उन्‍होंने कितने ही राजाओं तथा राजपुत्रों को जीतकर उनके यहाँ से सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित दस लाख कन्‍याएँ लाकर उन्‍हें ब्राह्मणों को दान किया था। (2)
  • वे सभी कन्‍याएँ रथों में बैठी थीं। उन सभी रथों में चार-चार घोड़े जुते थे। प्रत्‍येक रथ के पीछे सोने के हारों से अलंकृत सौ-सौ हाथी चलते थे। (3)
  • एक-एक हाथी के पीछे हजार-हजार घोड़े जा रहे थे और एक-एक घोड़े के साथ सौ-सौ गौएँ एवं गौओं के पीछे भेड़ और बकरियों के झुंड चलते थे। (4)
  • राजा भगीरथ गंगा के तट पर भूयसी[1] दक्षिणा देते हुए निवास करते थे। अत: उनके संकल्‍प कालिक जलप्रवाह से आक्रान्‍त होकर गंगादेवी मानो अत्‍यन्‍त व्‍यथित हो उठीं और समीपवर्ती राजा के अंक में आ बैठी। (5)
  • इस प्रकार भगीरथ की पुत्री होने से गंगा जी भागीरथी कहलायीं और उनके ऊरु पर बैठने के कारण उर्वशी नाम से प्रसिद्ध हुईं। राजा के पुत्री भाव को प्राप्‍त होकर उनका नरक से त्राण करने के कारण वे उस सयम पुत्री भाव को भी प्राप्‍त हुईं। (6)
  • सूर्य के समान तेजस्वी और मधुरभाषी गन्‍धर्वों ने प्रसन्‍न होकर देवताओं, पितरों और मनुष्‍यों के सुनते हुए यह गाथा गायी थी। (7)
  • यज्ञ करते समय भूयसी दक्षिणा देने वाले इक्ष्‍वाकुवंशी ऐश्‍वर्यशाली राजा भगीरथ को समुद्रगामिनी गंगादेवी ने अपना पिता मान लिया था। (8)
  • इन्‍द्र आदि सम्‍पूर्ण देवताओं ने उनके यज्ञ को सुशोभित किया था। उसमें प्राप्‍त हुए हविष्‍य को भली-भाँति ग्रहण करके उसके विघ्‍नों को शान्‍त करते हुए उसे निर्बाध रूप से पूर्ण किया था। (9)
  • जिस-जिस ब्राह्मण ने जहाँ-जहाँ अपने मन को प्रिय लगने वाली जिस-जिस वस्‍तु को पाना चाहा, जितेन्द्रिय राजा ने वहीं-वहीं प्रसन्‍नतापूर्वक वह वस्‍तु उसे तत्‍काल समर्पित की। (10)
  • उनके पास जो भी प्रिय धन था, वह ब्राह्मण के लिये अदेय नहीं था। राजा भगीरथ ब्राह्मणों की कृपा से ब्रह्मलोक को प्राप्‍त हुए। (11)
  • शत्रुओं की दशा और आशा का हनन करने वाले सृंजय! राजा भगीरथ ने यज्ञों में प्रधान ज्ञानयज्ञ और ध्‍यानयज्ञ को ग्रहण किया था। इसलिये किरणों का पान करने वाले महर्षिगण भी उस ब्रह्मलोक में जितेन्द्रिय राजा भगीरथ के निकट जाकर उसी स्‍थान पर रहने की इच्‍छा करते थे। (12)
  • श्‍वैत्‍य सृंजय! वे भगीरथ उपर्युक्‍त चारों बातों में तुमसे बहुत बढ़कर थे। तुम्‍हारे पुत्र की अपेक्षा उनका पुण्‍य ब‍हुत अधिक था। जब वे भी जीवित न रह सके, तब दूसरों की बात ही क्‍या है? अत: तुम यज्ञानुष्‍ठान और दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। नारद जी ने राजा सृंजय से यही बात कही। (13)

इस प्रकार श्रीमहाभारत के द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत अभिमन्‍युवध पर्व में षोडशराजकीयोपाख्‍यान विषयक साठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रचुर

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