अष्टाविंशत्यधिकद्विशततम (228) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टाविंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 74-90 का हिन्दी अनुवाद
वहाँ जो वेदवेत्ता ज्ञानी तथा गम्भीरता में समुद्र के समान पुरुष हैं, वे तो खेती आदि कार्यों में संलग्न हो गये हैं और मूर्खलोग श्राद्धान्न खाते फिरते हैं। गुरुलोग प्रात:काल जाकर शिष्यों से पूछते हैं कि आपकी रात सुख से बीती है न ? इसके सिवा वे उन शिष्यों के वस्त्र आदि ठीक से पहनाते औरउनकी वेशभूषा सवारते हैं तथा उनकी ओर से कोई प्रेरणा न होने पर भी स्वयं ही उनके संदेशवाहक दूत आदि का कार्य करते हैं। सास-ससुर के सामने ही बहू सेवकों पर शासन करने लगी है। वह पति को भी आदेश देती है और सबके सामने पति को बुलाकर उससे बात करती है। पिता विशेष प्रयत्नपूर्वक पुत्र का मन रखते हैं। वे उनके क्रोध से डरकर सारा धन पुत्रों को बाँट देते हैं और स्वयं बड़े कष्ट से जीवन बिताते हैं। जिन्हें हितैषी और मित्र समझा जाता था, वे ही लोग जब अपने सम्बन्धी के धन को आग लगने, चोरी हो जाने अथवा राजा के द्वारा छिन जाने से नष्ट हुआ देखते हैं, तब द्वेषवश उसकी हँसी उड़ाते हैं। दैत्यगण, कृतघ्न, नास्तिक, पापाचारी तथा गुरुपत्नीगामी हो गये हैं। जो चीज नहीं खानी चाहिये, वे भी खाते और धर्म की मर्यादा तोड़कर मनमाने आचरण करते हैं। इसीलिये वे कान्तिहीन हो गये हैं। देवेन्द्र! जब से इन दैत्यों ने ये धर्म के विपरीत आचरण अपनाये हैं, तब से मैने यह निश्चय कर लिया है कि अब इन दानवों के घर में नही रहूँगी। शचीपते! देवेश्वर! इसीलिये मैं स्वयं तुम्हारे यहाँ आयी हूँ। तुम मेरा अभिनन्दन करो। तुमसे पूजित होने पर मुझे अन्य देवता भी अपने सम्मुख स्थापित (एवं सम्मानित) करेंगे। जहाँ मैं रहूँगी, वहाँ सात देवियाँ और निवास करेंगी, उन सबके आगे आठवीं जया देवी भी रहेंगी। ये आठो देवियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं, मुझसे भी श्रेष्ठ हैं और मुझे आत्मसमर्पण कर चुकी हैं। पाकशासन! उन देवियों के नाम इस प्रकार हैं- आशा, श्रद्धा, धृति, शान्ति, विजिति, संनति, क्षमा और आठवी वृत्ति (जया)। ये आठवी देवी उन सातों की अग्रगामिनी हैं। वे देवियाँ और मैं सब के सब उन असुरों को त्यागकर तुम्हारे राज्य में आयी हैं। देवताओं की अन्तरात्मा धर्म में निष्ठा रखने वाली है; इसीलिये अब हमलोग इन्हीं के यहाँ निवास करेंगी। (भीष्म जी कहते हैं)- लक्ष्मीदेवी के इस प्रकार कहने पर देवर्षि नारद तथा वृत्रहन्ता इन्द्र ने उनकी प्रसन्नता के लिये उनका अभिनन्दन किया। उस समय देवमार्गों पर मनोरम गन्ध और सुखद स्पर्श से युक्त तथा सम्पूर्ण इन्द्रियों को आनन्द प्रदान करने वाले वायुदेव ,जो अग्निदेवता के मित्र हैं, मन्दगति से बहने लगे। उस परम पवित्र एवं मनोवांछित प्रदेश में राजलक्ष्मी सहित इन्द्रदेव का दर्शन करने के लिये प्राय: सभी देवता उपस्थित हो गये। तत्पश्चात्सहस्र नेत्रधारी सुरश्रेष्ठ इन्द्र लक्ष्मीदेवी तथा अपने सुहृद् महर्षि नारद के साथ हरे रंग के घोड़ों से जुते हुए रथ पर बैठकर स्वर्गलोक की राजधानी अमरावती में आये और देवताओं से सत्कृत हो उनकी सभा में गये। उस समय अमरों के पौरूष को प्रत्यक्ष देखने वाले देवर्षि नारद जी ने अन्य महर्षियों के साथ मिलकर वज्रधारी इन्द्र और लक्ष्मीदेवी के संकेत पर मन-ही-मन विचार करके वहाँ लक्ष्मीजी के शुभागमन की प्रशंसा की और उनका पदार्पण सम्पूर्ण लोकों के लिये मंगलकारी बताया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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