महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 41-46

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18


हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के[1] कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किये गये हैं।[2] अन्तःकरण का निग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिये कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।[3]

शूरवीरता,[4] तेज,[5] धैर्य,[6] चतुरता[7] और युद्ध में न भागना,[8] दान देना और स्वाभिमान[9]- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।[10] खेती,[11] गोपालन[12] और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार[13] ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना[14] शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। सम्बन्ध-इस प्रकार चारों वर्णों के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके अब भक्तियुक्त कर्मयोग का स्वरूप और फल बतलाने के लिये, उन कर्मों का किस प्रकार आचरण करने से मनुष्य अनायास परम सिद्धि प्राप्त कर लेता है- यह बात दो श्लोकों में बतलाते हैं- अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[15] अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परम सिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन। जिस परमेश्वर सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके[16] मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।[17]

सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में यह बात कही गयी कि मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करके परम सिद्धि को पा लेता है; इस पर यह शंका होती है कि यदि कोई क्षत्रिय अपने युद्धादि क्रुर कर्मों को न करके, ब्राह्मणों की भाँति अध्यापनादि शांतिमय कर्मों से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने की चेष्टा करे या इसी तरह कोई वैश्य या शूद्र अपने कर्मों को उच्च वर्णों के कर्मों से हीन समझकर उनका त्याग कर दे और अपने से ऊँचे वर्ण की वृति से अपना निर्वाह करके परमात्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करे तो उचित है या नहीं। इस पर दूसरे के धर्म की अपेक्षा स्वधर्म श्रेष्ट बतलाकर उसके त्याग का निषेध करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों ही द्विज हैं। तीनों का ही यज्ञोपवीतधारण पूर्वक वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार है; इसी हेतु से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इन तीनों को सम्मिलित करके कहा गया है। शूद्र द्विज नहीं है, अतएव उनका यज्ञोपवीतधारण में तथा वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार नहीं है- यह भाव दिखलाने के लिये उनको इस तीनों से अलग कहा गया है।
  2. प्राणियों के जन्म-जन्मान्तरों के किये हुए कर्मों के जो संस्कार हैं, उनका नाम स्वभाव है; उस स्वभाव के अनुरूप प्राणियों के अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाली सत्त्व, रज और तम- इन गुणवृत्तियों के अनुसार ही ब्राह्मण आदि वर्णों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं; इस कारण उन गुणों की अपेक्षा से ही शास्त्र में चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया जाता है। जिसके स्वभाव में केवल सत्त्वगुण अधिक होता है, वह ब्राह्मण होता है; इस कारण उसके स्वभाविक कर्म शम-दमादि बतलाये गये हैं। जिसके स्वभाव में सत्त्वमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, यह क्षत्रिय होता है; इस कारण उसके स्वाभाविक कर्म शूरवीरता, तेज आदि बतलाये गये हैं। जिसके स्वभाव में तमोमिश्रित रजोगुण अधिक होता है, वह वैश्य होता है; इसलिये उसके स्वभाविक कर्म, कृषि, गोरक्षा आदि बतलाये गये हैं और जिसके स्वभाव में रजोमिश्रित तमोगुण प्रधान होता है, यह शूद्र होता है; इस कारण उसका स्वभाविक कर्म तीनों वणों की सेवा करना बतलाया गया है। इस प्रकार गुण और कर्म के विभाग से ही वर्ण-विभाग बनता है, परन्‍तु इसका यह अर्थ नहीं कि मनमाने कर्म से वर्ण बदल जाता है। वर्ण का मूल जन्म है और कर्म उसके स्वरूप की रक्षा में प्रधान कारण है। इस प्रकार जन्म और कर्म दोनों ही वर्ण में आवश्यक हैं। केवल कर्म से वर्ण को मानने वाले वस्तुतः वर्ण को मानते ही नहीं। वर्ण यदि कर्म पर ही माना जाय तब तो एक दिन में एक ही मनुष्य को न मालूम कितनी बार वर्ण बदलना पड़ेगा। फिर तो समाज में कोई श्रृंखला या नियम ही न रहेगा; सर्वथा अव्यवस्था फेल हो जायगी, परन्तु भारतीय वर्णधर्म में ऐसी बात नहीं है।
  3. ब्राह्मण में केवल सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, इस कारण उपर्युक्त कर्मों में उसकी स्वाभाविक प्रवृति होती है। उसका स्वभाव उपर्युक्त कर्मों के अनुकुल होता है, इस कारण उपर्युक्त कर्मों के करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता नहीं होती। इन कर्मों में बहुत-से सामान्य धर्मों का भी वर्णन है। इससे यह समझना चाहिये कि क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों के वे स्वाभाविक कर्म तो नहीं है; परन्तु परमात्मा की प्राप्ति में सबका अधिकार है, अतएव उनके लिये वे प्रयत्नसाध्य है।
  4. बडे़-से-बड़े बलवान शत्रु का न्याययुक्त सामना करने में भय न करना तथा न्याययुक्त युद्ध करने के लिये सदा ही उत्साहित रहना और युद्ध के समय साहसपूर्वक गम्भीरता से लड़ते रहना ‘शूरवीरता’ है। भीष्म पितामह का जीवन इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
  5. जिस शक्ति के प्रभाव से मनुष्य दूसरों का दबाव मानकर किसी भी कर्तव्य पालन से कभी विमुख नहीं होता और दूसरे लोग न्याय के और उसके प्रतिकूल व्यवहार करने में डरते रहते है, उस शक्तिमान का नाम ‘तेज’ है। इसी को प्रताप और प्रभाव भी कहते हैं।
  6. बडे़-से-बड़ा संकट उपस्थित हो जाने पर-युद्धस्थल में शरीर पर भारी-से-भारी चोट लग जाने पर, अपने पुत्र पौत्रादि के मर जाने पर, सर्वस्व का नाश हो जाने पर या इसी तरह अन्य किसी प्रकार की भारी से भारी विपत्ति आ पड़ने पर भी व्याकुल न होना और अपने कर्तव्यपालन से कभी विचलित न होकर न्यायानुकूल कर्तव्यपालन में सलग्न रहना- इसी का नाम ‘धैर्य’ है।
  7. परस्पर झगड़ा करने वालों का न्याय करने में, अपने कर्तव्य का निर्णय और पालन करने में, युद्ध करने में तथा मित्र, वैरी और मध्यस्थों के साथ यथायोग्य व्यवहार करने आदि में जो कुशलता है, उसी का नाम ‘चतुरता’ है।
  8. युद्ध करते समय भारी-से-भारी संकट आ पड़ने पर भी पीठ न दिखलाना, हर हालत में न्यायपूर्वक सामना करके अपनी शक्ति का प्रयोग करते रहना और प्राणों की परवाह न करके युद्ध में डटे रहना ही ‘युद्ध में न भागना’ है। इसी धर्म को ध्यान में रखते हुए वीर बालक अभिमन्यु ने छः महारथियों से अकेले युद्ध करके प्राण दे दिये, किंतु शस्त्र नहीं छोड़े। (महा द्रोण 49/22)
  9. शासन द्वारा लोगों को अन्यायाचरण से रोककर सदाचार में प्रवृत करना, दुराचारियों को दण्ड देना, लोगों से अपनी आज्ञा का न्याययुक्त पालन करवाना तथा समस्त प्रजा का हित सोचकर निःस्वार्थभाव से प्रेमपूर्वक पुत्र की भाँति उसकी रक्षा और पालन-पोषण करना-‘स्वाभिमान’ है।
  10. उपर्युक्त कर्मों में क्षत्रियों की स्वाभाविक प्रवृति होती है, इसका पालन करने में उन्‍हें किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। इन कर्मों में भी जो धृति, दान आदि सामान्य धर्म है, उसमें सबका अधिकार होने के कारण वे अन्य वर्ण वालों के लिये अधर्म या परधर्म नहीं है; किंतु वे उनके स्वाभाविक कर्म नहीं हैं। इसी कारण वे उनके लिये प्रयत्नसाध्य है।
  11. जमीन में चीज बोकर गेहुँ, जो, चने, मूंग, धान, मक्की, उड़द, हल्दी, धनियां आदि समस्त खाद्य पदार्थों को, कपास और नाना प्रकार की औषधियों को और इसी प्रकार देवता, मनुष्य और पशु आदि के उपयोग में आने वाली अन्य पवित्र वस्तुओं को न्यायानुकूल उत्पन्न करने का नाम ‘कृषि’ यानी खेती करना है।
  12. नन्द आदि गोपी की भाँति गौओं को अपने घर में रखना; उनको जंगल में चराना, घर में भी यथावश्यक चारा देना, जल पिलाना और व्याघ्र आदि हिंसक जीवों से उनको बचाना; उनसे दूध, दही, घृत आदि पदार्थों को उत्पन्न करके उन पदार्थों से लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना और उसके परिर्वतन में प्राप्त धन से अपनी गृहस्थी के सहित उन गौओं का भलीभाँति न्यायपूर्वक निर्वाह करना ‘गौरक्ष्यम्’ यानी गोपालन है। पशुओं में ‘गौ’ प्रधान है तथा मनुष्यमात्र के लिये सबसे अधिक उपकारी पशु भी ‘गौ’ ही है; इसलिये भगवान ने यहाँ ‘पशुपालनम्’ पद का प्रयोग न करके उसके बदले में ‘गौरक्ष्यम्’ पद का प्रयोग किया है। अतएव यह समझना चाहिये कि मनुष्य के उपयोगी भैंस, ऊँट, घोडे़, और हाथी आदि अन्यान्य पशुओं का पालन करना भी वैश्यों का कर्म है; अवश्य ही गौपालन उन सबकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है।
  13. मनुष्‍यों के और देवता, पशु, पक्षी आदि अन्य समस्त प्राणियों के उपयोग में आने वाली समस्त पवित्र वस्तुओं को धर्मानुकूल खरीदना और बेचना तथा आवश्यकतानुसार उनको एक स्थान से दूसरे स्थान में पहुँचाकर लोगों की आवश्यकताओं को पूर्ण करना ‘वाणिज्य’ यानी क्रय विक्रय रूप व्यवहार है। वाणिज्य करते समय वस्तुओं के खरीदने-बेचने में तौल-नाप और गिनती आदि से कम दे देना या अधिक ले लेना। वस्तु को बदल कर या एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर अच्छी के बदले खराब दे देना या खराब के बदले अच्छी ले लेना; नफा, आढ़त और दलाली आदि ठहराकर उससे अधिक लेना या कम देना; इसी तरह किसी भी व्यापार में झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती का या अन्य किसी प्रकार के अन्याय-का प्रयोग करके दूसरों के स्वत्व को हड़प लेना- ये सब वाणिज्य के दोष हैं। इन सब दोषों से रहित जो सत्य और न्याययुक्त पवित्र वस्तुओं का खरीदना और बेचना है, वही क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार है। तुलाधार ने इस व्यवहार से ही सिद्धि प्राप्त की थी (महाभारत शांतिपर्व)
  14. उपर्युक्त द्विजाति वर्णों की अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की दासवृति से रहना; उसकी आज्ञाओं का पालन करना; घर में जल भर देना, स्नान करा देना, उनके जीवन-निर्वाह के कार्यों में सुविधा कर लेना, दैनिक कार्य में यथायोग्य सहायता करना, उनके पशुओं का पालन करना, उनकी वस्तुओं को सम्हालकर रखना, कपड़े साफ करना, क्षौरकर्म करना, आदि जितने भी सेवा के कार्य हैं, उन सब को करके उनको सन्तुष्ट रखना; अथवा सबके काम में आने वाली वस्तुओं को कारीगरी के द्वारा तैयार करके उन वस्तुओं से उनकी सेवा करके अपनी जीविका चलाना- ये सब ‘परिचर्यात्मक’ यानी सब वर्णों की सेवा करना रूप कर्म के अन्‍तर्गत हैं।
  15. समाज-शरीर मस्तिष्क ब्राह्मण है, बाहु क्षत्रिय है, ऊरू वैश्य है और चरण शुद्र है। चारों एक ही समाज शरीर के चार आवश्यक अंग है और एक-दूसरे की सहायता पर सुरक्षित और जीवित है। घृणा या अपमान की तो बात ही क्या है, इनमें से किसी की तनिक भी अवहेलना नहीं की जा सकती। न इसमें ऊँच-नीच की कल्पना है। अपने-अपने स्थान और कार्य के अनुसार चारों ही बड़े है। ब्राह्मण ज्ञानबल से, क्षत्रिय बाहुबल से, वैश्य धनबल से और शुद्र जनबल या श्रमबल से बड़ा है और चारों की ही पूर्ण उपयोगिता है। एक ही घर के चार भाईयों की तरह एक ही घर की सम्मिलित उन्नति के लिये चारों भाई प्रसन्नता और योग्यता के अनुसार बांटे हुए अपने अपने पृथक-पृथक आवश्यक कर्तव्यपालन में लगे रहते थे। ये चारों वर्ण परस्पर-ब्राह्मण धर्म स्थापना के द्वारा, क्षत्रिय बाहुबल के द्वारा, वैश्य धन बल के द्वारा और शुद्ध शारीरिक श्रम बल के द्वारा एक दूसरे का हित करते हुए, समाज की शक्ति बढ़ाते हुए परम सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
  16. भगवान इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करने वाले, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, सबके प्रेरक, सबके आत्मा, सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी हैं; यह सारा जगत उन्‍हीं की रचना है और वे स्वयं ही अपनी योगमाया से जगत के रूप में प्रकट हुए हैं अतएव यह सम्‍पूर्ण जगत भगवान का है; मेरे शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा मेरे द्वारा जो कुछ भी यज्ञ, दान आदि स्ववर्णोचित कर्म किये जाते है- वे सब भी भगवान हैं और मैं स्वयं भी भगवान ही हूं; समस्त देवताओं के एवं अन्य प्राणियों के आत्मा होने के कारण वे ही समस्त कर्मों के भोक्ता हैं। (गीता 5:29)- परम श्रद्धा और विश्वास के साथ इस प्रकार समस्त कर्मों में ममता, आसक्ति और फलेच्छा का सर्वथा त्याग करके भगवान की आज्ञानुसार उन्‍हीं की प्रसन्नता के लिये अपना कर्तव्य पालन करते हुए अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा समस्त जगत की सेवा करना- समस्‍त प्राणियों को सुख पहुँचाना ही अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा परमेश्वर की पूजा करना है।
  17. प्रत्येक मनुष्य, चाहे वह किसी भी वर्ण या आश्रम में स्थित हो, अपने कर्मों से भगवान की पूजा करके परम सिद्धिरूप परमात्मा को प्राप्त कर सकता है; परमात्मा को प्राप्त करने में सबका समान अधिकार है। अपने श्रम दम आदि कर्मों को उपर्युक्त प्रकार से भगवान के सर्मपण करके उनके द्वारा भगवान की पूजा करने वाला ब्राह्मण जिस पद को प्राप्त होता है, अपने शूरवीरता आदि कर्मों के द्वारा भगवान की पूजा करने वाला वैश्य तथा अपने सेवा सम्बन्धी कर्मों द्वारा भगवान की पूजा करने वाला शूद्र भी उसी परमपद को प्राप्त होता है। अतएव कर्मबन्धन से छूटकर परमात्मा को प्राप्त करने का एक बहुत ही सुगम मार्ग है। इसलिये मनुष्य को उपयुक्त भाव से अपने कर्तव्यपालन द्वारा परमेश्‍वर की पूजा करने का अभ्यास करना चाहिये।

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