द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 47-53 का हिन्दी अनुवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18
सम्बन्ध- भगवान ने तेरहवें से चालीसवें श्लोक तक संन्यास यानी सांख्य का निरूपण किया। फिर इकतालीसवें श्लोक से यहाँ तक कर्मयोग रूप त्याग का तत्त्व समझाने के लिये स्वाभाविक कर्मों का स्वरूप और उनकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश करके तथा कर्मयोग में भक्ति का सहयोग दिखलाकर उसका फल भगवत्प्राप्ति बतलाया; किंतु वहाँ संन्यास के प्रकरण यह बात नहीं कही गयी कि संन्यास का क्या फल होता है और कर्मों में कर्तापन का अभिमान त्याग कर उपासना के सहित सांख्ययोग का किस प्रकार साधन करना चाहिये। अतः यहाँ उपासना के सहित विवेक और वैराग्यपूर्वक एकान्त में रहकर साधन करने की विधि और उसका फल बतलाने के लिये पुनः सांख्ययोग प्रकरण आरम्भ करते हैं। सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धि वाला, स्पृहारहित और जीते हुए अन्तःकरण वाला[6] पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होता है।[7] जो कि ज्ञानयोग की परा निष्ठा है, उस नैष्कर्म्यसिद्धि को[8] जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्मा को प्राप्त होता है,[9] उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र! तु संक्षेप में ही मुझसे समझ। विशुद्ध बुद्धि से युक्त[10] तथा हल्का, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करने वाला,[11] सात्त्विक धारणशक्ति के द्वारा अन्तःकरण और इन्द्रियों का संयम करके[12] मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला,[13] राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके[14] भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरन्तर ध्यानयोग के परायण रहने वाला,[15] ममता रहित[16] और शांतियुक्त पुरुष[17] सच्चिदानन्दन ब्रह्मा में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो कर्म गुणयुक्त हों और जिनका अनुष्ठान भी पूर्णतया किया गया हो, किंतु वे अनुष्ठान करने वाले के लिये विहित न हों, दूसरों के लिये ही विहित हो- ऐसे भलीभाँति आचरित कर्मों की अपेक्षा अर्थात जैसे वैश्य और क्षत्रिय आदि की अपेक्षा ब्राह्मण के विशेष धर्मों में अहिंसादि सद्गुणों की अधिकता है, गृहस्थ की अपेक्षा संन्यास आश्रम के धर्मों में सद्गुणों की बहुलता है, इसी प्रकार शूद्र की अपेक्षा वैश्य और क्षत्रिय कर्म गुणयुक्त है, ऐसे परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है भाव यह है कि जैसे देखने में कुरूप और गुणरहित होने पर भी स्त्री के लिये अपने ही पति का सेवन करना कल्याणप्रद है, उसी प्रकार देखने में गुणों से हीन होने पर भी तथा उसके अनुष्ठान में अंगवैगुण्य हो जाने पर भी जिसके जिये जो कर्म विहित है, वही उसके लिये कल्याणप्रद है
- ↑ क्षत्रिय का स्वधर्म युद्ध करना और दुष्टों को दण्ड देना आदि है; उसमें अहिंसा और शांति आदि गुणों की कमी मालूम होती है। इसी तरह वैश्य के ‘कृषि’ आदि कर्मों में भी हिंसा आदि दोषों की बहुलता है, इस कारण ब्राह्मण के शांतिमय कर्मों की अपेक्षा वे भी विगुण यानी गुणहीन है एवं शूद्रों के कर्म वैश्यों और क्षत्रियों की अपेक्षा भी निम्न श्रेणी के हैं। इसके सिवा उन कर्मों के पालन में किसी अंग का छूट जाना भी गुण की कमी हैं। उपर्युक्त प्रकार से स्वधर्म में गुणों की रहने पर भी वह गुणयुक्त परधर्म अपेक्षा श्रेष्ट हैं।
- ↑ दूसरे का धर्म पालन करने से उसमें हिंसादि दोष कम होने पर भी परवृत्तिच्छेदन आदि पाप लगते है; किंतु अपने स्वाभाविक कर्मों का न्यायपूर्वक आचरण करते समय उनमें जो आनुषंगिक हिंसादि पाप बन जाते है, वे उसको नहीं लगते।
- ↑ जो स्वाभाविक कर्म श्रेष्ठ गुणों से युक्त हो, उनका त्याग न करना चाहिये- इसमें तो कहना ही क्या है; पर जिनमें साधारणतः हिंसादि दोषों का मिश्रण दिखता हो, वे भी शास्त्रविहित एवं न्यायोचित होने के कारण दोषयुक्त दिखने पर भी वास्तव में दोषयुक्त नहीं हैं। इसलिये उन कर्मों का भी त्याग नहीं करना चाहिये।
- ↑ जिस प्रकार धूएं से अग्नि ओतप्रोत रहती है, धूआं अग्नि से सर्वथा अलग नहीं हो सकता- उसी प्रकार आरम्भ मात्र दोष से ओतप्रोत है, क्रियामात्र में किसी-न-किसी प्रकार से किसी-न-किसी अंश में प्राणियों की हिंसा हो जाती है।; क्योंकि संन्यास, आश्रम में भी शौच, स्नान और भिक्षाटनादि कर्म द्वारा किसी-न-किसी अंश में प्राणियों की हिंसा होती है और ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मों में भी आरम्भ की बहुलता होने से क्षुद्र प्राणियों की हिंसा होती है। इसलिये किसी भी वर्ण-आश्रम में कर्म साधारण दृष्टि से सर्वथा दोषरहित नहीं है। और कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता (गीता 3:5) इस कारण स्वधर्म का त्याग कर देने पर भी कुछ-न-कुछ कर्म तो मनुष्य को करना ही पड़ेगा तथा वह तो कुछ करेगा, वही दोषयुक्त होगा। इसलिये अमुक कर्म नीचा है या दोषयुक्त है- ऐसा समझकर मनुष्य को स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; बल्कि उसमें ममता, आसक्ति और फलेच्छारूप दोषों का त्याग करके उनका न्याययुक्त आचरण करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य का अन्तःकरण शुद्ध होकर उसे शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
- ↑ अन्तःकरण और इन्द्रियों के सहित शरीर में, उसके द्वारा किये जाने वाले कर्मों में तथा समस्त भागों और चराचर प्राणियों के सहित समस्त जगत में जिसकी आसक्ति का सर्वथा अभाव हो गया है; जिसके मन-बुद्धि की कहीं किंचिन्मात्र भी संलग्नता नहीं हो रही है- वह ‘सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला’ है जिसकी स्पृहा का सर्वथा अभाव हो गया है, जिसको किसी भी सांसारिक वस्तु की किंचिन्मात्र भी परवा नहीं रही है, उसे ‘स्पृहारहित’ कहते हैं। जो जिसका इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण अपने वश में किया हुआ है, उसे ‘जीते हुए अन्तःकरण वाला’ कहते हैं। जो उपर्युक्त तीनों गुणो से सम्पन्न होता है, वही मनुष्य सांख्ययोग के द्वारा परमात्मा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति कर सकता हैं।
- ↑ संन्यास-ज्ञानयोग यानी सांख्ययोग स्वरूप भगवान ने इक्यावनवें से तिरपनवें श्लोक तक बतलाया है इस साधक का फल जो कि कर्मबन्धन से सर्वथा छूटकर सच्चिदानन्दघन निर्विकार परमात्मा यथार्थ ज्ञान को प्राप्त हो जाना है, वही ‘परम नैष्कर्म्यसिद्धि’ है, जिसको संन्यास के द्वारा प्राप्त किया जाता है।
- ↑ जो ज्ञानयोग की अंतिम स्थिति है, जिसको पराभक्ति और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, जो समस्त साधनों की अवधि है, जो पूर्वश्लोक ‘नैष्कर्म्यसिद्धि’ के नाम से कही गयी है, वही यहाँ ‘सिद्धि’ के नाम तथा वही ‘परा निष्ठा’ के नाम से कही गयी हैं।
- ↑ नित्य-निर्विकार, निर्गुण-निराकार, सच्चिदानन्दघन, पूर्णब्रह्म परमात्मा का वाचक यहाँ ब्रह्म पद है और तत्त्वज्ञान के द्वारा पचपनवें श्लोक के वर्णनानुसार अभिन्नभाव से उसमें प्रविष्ट हो जाना ही उसको प्राप्त होना है।
- ↑ पूर्वार्जित पाप के संस्कारों से रहित अन्तःकरण वाला ही ‘विशुद्ध बुद्धि से युक्त’ कहलाता है।
- ↑ जहाँ का वायुमण्डल पवित्र हो, जहाँ बहुत लोगों का आना जाना न हो, जो स्वभाव से ही एकान्त और स्वच्छ हो या झाड़-बुहारकर और धोकर जिसे स्वच्छ बना लिया गया हो- ऐसे नदीतट, देवालय, वन और पहाड़ी की गुफा आदि स्थानों में निवास करना ही ‘एकान्त और शुद्ध देश का सेवन करना’ है।
- ↑ इन्द्रियों और अन्तःकरण का समस्त विषयों से सम्बन्ध-विच्छेद कर देना ही उनका संयम करना है।
- ↑ मन, वाणी और शरीर में इच्छाचारिता का तथा बुद्धि के विचलित करने की शक्ति का अभाव कर देना ही उसको वश में कर लेना है।
- ↑ एक लोक या परलोक के किसी भी भोग में, किसी भी प्राणी तथा किसी भी पदार्थ, क्रिया अथवा घटना में किंचिन्मात्र भी आसक्ति या द्वेष न रहने देना ‘राग-द्वेष का सर्वथा नाश कर देना’ है।
- ↑ शरीर, इन्द्रियों और अन्तःकरण में जो आत्मबुद्धि है, जिसके कारण मनुष्य मन, बुद्धि और शरीर द्वारा किये जाने वाले कर्मों में अपने को कर्ता मान लेता है। उसका नाम ‘अहंकार’ है। धन, जन, विद्या, जाति और शारीरिक शक्ति आदि के कारण होने वाला जो गर्व उसका नाम ‘दर्प’ यानी घमण्ड है। इस लोक और परलोक के भोगों को प्राप्त करने की इच्छा का नाम ‘काम’ है। अपने मन में प्रतिकुल आचरण करने वाले पर और नितिविरुद्ध व्यवहार करने वाले पर जो अन्तःकरण उत्तेजना भाव उत्पन्न होता है- जिसके कारण मनुष्य के नेत्र लाल हो जाते हैं, होठ फटने लगते हैं, हृदय में जलन होने लगती है, और मुख विकृत हो जाता है- उनका नाम ‘क्रोध’ है। भोग्यबुद्ध से सांसारिक भोग-सामग्रियों के संग्रह का नाम ‘परिग्रह’ है। अतएव इस सब का त्याग करके पूर्वोक्त प्रकार से सात्त्विक धृति के द्वारा मन-इन्द्रियों की क्रियाओं को रोककर समस्त स्फुरणाओं का सर्वथा अभाव करके, नित्य-निरन्तर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मा का अभिन्नभाव से चिन्तन करना (गीता 6:25) तथा उठते-बैठते, सोते-जागते एवं शौच-स्नान, खान-पान आदि आवश्यक क्रिया करते समय भी नित्य-निरन्तर परमात्मा के स्वरूव का चिन्तन करते रहना एवं उसी को सबसे बढ़कर परम कर्तव्य समझना ‘ध्यानयोग परायण रहना’ है।
- ↑ मन और इन्द्रियों के सहित शरीर में समस्त प्राणियों में, कर्मों में, समस्त भोगों में एवं जाति, कुल, देश, वर्ण और आश्रम में ममता का सर्वथा त्याग कर देना ही ‘ममता से रहित होना’ है।
- ↑ जिसके अन्तःकरण में विक्षेप का सर्वथा अभाव हो गया है और जिसका अन्तःकरण अटल शांति और शुद्ध सात्त्विक प्रसन्नता से व्याप्त रहता है, वह उपरत पुरुष ‘शांतियुक्त’ कहा जाता है।
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज