महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 54-60

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 54-60 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18

फिर वह सच्चिदानन्‍दन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मन वाला योगी न तो किसी के लिये शोक करता है। और न किसी की आकांक्षा ही करता है।[1] ऐसा समस्त प्राणियों में सम्भाव वाला योगी मेरी परा भक्ति को[2] प्राप्त हो जाता है। उस परा भक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मै जो हुं और जितना हूँ ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से जान लेता है[3] तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।[4]

सम्बन्ध- अर्जुन की जिज्ञासा के अनुसार त्याग यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग तत्त्व अलग-अलग समझकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किंतु उस वर्णन में भगवान ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधक कर्तव्य है; अतएव अर्जुन को भक्तिप्रधान कर्मयोग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्तिप्रधान कर्मयोग महिमा कहते हैं। मेरे परायण हुआ[5] कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को[6] प्राप्त हो जाता है।[7] सब कर्मों का मन से मुझमें अर्पण करके[8]तथा समबुद्धि रूप योग को अवलम्बन करके मेरे परायण[9] और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो।[10]

उपर्युक्त प्रकार से मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही कर जायगा[11]और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थ से भ्रष्ट हो जायगा।[12]जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करुंगा’[13] तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्‍योंकि तेरा स्वभाव मुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा।[14]

हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण[15] करना नहीं चाहता; उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा।[16] सम्बन्ध- पूर्वश्लोक में कर्म करने में मनुष्य को स्वभाव के अधीन बतलाया गया; इस पर यह शंका हो सकती है कि प्रकृति का स्वभाव जड़ है; वह किसी को अपने वश में कैसे कर सकता है; इसलिये भगवान कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ब्रह्माभूत योगी की सर्वत्र ब्रह्माबुद्धि हो जाने के कारण संसार की किसी भी वस्तु में उसकी भिन्न सत्ता, रमणीय-बुद्धि और ममता नहीं रहती। अतएव शरीरादि के साथ किसी का संयोग-वियोग होने में उसका कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं; इस कारण वह किसी भी हालत में किसी भी कारण से किंचिन्मात्र भी चिंता या शोक नहीं करता और वह पूर्णकाम हो जाता है, इसलिये वह कुछ भी नहीं चाहता।
  2. जो ज्ञानयोग का फल है, जिसको ज्ञान की निष्ठा और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं, उसी को ‘परा भक्ति’ कहा है।
  3. इस प्रकार भक्तिरूप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होने से साथ ही वह योगी उस तत्त्वज्ञान के द्वारा मेरे यथार्थ रूप को जान लेता है; मेरा निर्गुण-निराकार रूप क्या है तथा सगुण-निराकार और सगुण-साकार रूप क्या है, मैं निराकार से साकार कैसे होता हूँ और पुनः साकार से निराकार कैसे होता हूं- इत्यादि कुछ भी जानना उसके लिये शेष नहीं रहता।
  4. परमात्मा के तत्त्व ज्ञान और उनको प्राप्ति में अंतर यानी व्यवधान नहीं होता, परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ जानना और उनमें प्रविष्ट होना-दोनों एक साथ होते हैं। परमात्मा सबके आत्मरूप होने से वास्तव में किसी को अप्राप्त नहीं है, अतः उसके यथार्थ स्वरूप ज्ञान होने के साथ ही उसकी प्राप्ति हो जाती है।
  5. समस्त कर्मों का और उनके फलरूप समस्त भोगों का आश्रय त्यागकर जो भगवान के ही आश्रित हो गया है, जो अपने मन-इन्द्रियों सहित शरीर को, उसके द्वारा किये जाने वाले समस्त कर्मों को और उनके फल को भगवान के समर्पण करके उन सबसे ममता, आसक्ति और कामना हटाकर भगवान के ही परायण हो जाता है। भगवान को ही अपना परम प्राप्य, परम प्रिय, परम हितैषी, परमाधार और सर्वस्व समझकर जो भगवान के विधान में सदैव प्रसन्न रहता है- किसी भी सांसारिक वस्तु के संयोग-वियोग में और किसी भी घटना में कभी हर्ष-शोक नहीं करता, सदा भगवान् पर ही निर्भर रहता है, वह भक्तिप्रधान कर्मयोगी ही भगवत्परायण है।
  6. जो सदा से और सदा रहता है, जिसका कभी अभाव नहीं होता, वह सच्चिदानन्‍दघन, पूर्णब्रह्मा, सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्‍वर परम प्राप्तय है, इसलिये उसे ‘परम पद’ के नाम से कहा गया है। इसी को पैंतालिसवें श्लोक में ‘संसिद्धि’ छियालिसवें में ‘सिद्धि’ और पचपनवें श्लोक में ‘माम्’ पदवाच्य परमेश्‍वर कहा गया है।
  7. सांख्ययोगी समस्त परिग्रह को समस्त भोगों का त्याग करके एकान्त देश में निरन्तर परमात्मा के ध्यान का साधन करता हुआ जिस परमात्मा को प्राप्त करता है, भगवदाश्रयी कर्मयोगी स्ववर्णश्रमोचित समस्त कर्मों को सदा करता हुआ भी उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है; दोनों के फल में किसी प्रकार का भेद नहीं होता।
  8. अपने मन, इन्द्रिय और शरीर, उनके द्वारा किये जाने वाले कर्मों को और संसार की समस्त वस्तुओं को भगवान की समझकर उन सब में ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है, भगवान ही सब प्रकार की शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा अपने इच्छानुसार समस्त कर्म करवाते हैं, मैं कुछ भी नहीं करता-ऐसा समझकर भगवान की आज्ञानुसार उन्‍हीं के लिये, उन्‍हीं की प्रेरणा से, जैसे करावें वैसे ही, निमित्तमात्र बनकर समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँति करते रहना-यही समस्त कर्मों को मन से भगवान में अपर्ण कर देना है।
  9. भगवान को ही अपना परम प्राप्य, परम गति, परम हितैषी, परम प्रिय, और पराधार मानना, उनके विधान में सदा ही संतुष्ट रहना और उनकी प्राप्ति के साधनों में तत्पर रहना भगवान के परायण होना है।
  10. मन-बुद्धि को अटल भाव से भगवान में लगा देना; भगवान के सिवा अन्य किसी में किंचिन्मात्र भी प्रेम का सम्बन्ध न रखकर अनन्य प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान का ही चिन्तन करते रहना, क्षणमात्र के लिये भी भगवान की स्मृति का असंहार हो जाना; उठते-बैठते, चलते फिरते, खाते-पीते और समस्त कर्म करते समय भी नित्य-निरन्तर मन से भगवान के दर्शन करते रहना- यही निरन्तर भगवान में चित्त वाला होना है।
  11. निरन्तर मुझमें मन लगा देने के बाद तुम्हें और कुछ नहीं करना पड़ेगा, मेरी दया के प्रभाव से अनायास ही तुम्हारे इस लोक और परलोक के समस्त दुःख टल जायेंगे, तुम सब प्रकार के दुर्गुण और दुराचारों से रहित होकर सदा के लिये जन्म-मरण रूप महान् संकट से मुक्त हो जाओगे और मुझ नित्य-आनन्दघन परमेश्‍वर को प्राप्त कर लोगे।
  12. यद्यपि भगवान अर्जुन से पहले यह कह चुके है कि तुम मेरे भक्त हो (गीता 4/3) और यह भी कह आये है कि ‘न मैं भक्तःप्रणश्यति’ अर्थात् मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता (गीता 9/31) और यहाँ यह कहते है कि तुम नष्ट हो जाओगे अर्थात् तुम्हारा पतन हो जायगा; इसमें विरोध मालूम होता है; किंतु भगवान स्वयं ही उपर्युक्त वाक्य में ‘चेत्’ पद का प्रयोग करके इस विरोध का समाधान कर दिया है। अभिप्राय यह है कि भगवान के भक्त का कभी पतन नहीं होता, यह ध्रुव सत्य है यह भी सत्य है कि अर्जुन भगवान के परम भक्त हैं; इसलिये वे भगवान की बात न सुने, उनकी आज्ञा का पालन न करे-यह हो नहीं सकता; किंतु इतने पर भी यदि अहंकार के वश में होकर भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर दे, तो फिर भगवान के भक्त नहीं समझे जा सकते, इसलिये फिर उनका पतन होना भी युक्तिसंगत है।
  13. पहले भगवान के द्वारा युद्ध करने की आज्ञा दी जाने पर (गीता 2/3) जो अर्जुन ने भगवान से कहा था कि ‘न यात्स्ये’-मैं युद्ध नहीं करुंगा (गीता 2/9) उसी बात का स्मरण कराते हुए भगवान कहते है कि तुम जो यह मानते हो कि ‘मैं युद्ध नहीं करुंगा’, तुम्हारा यह मानना केवल अहंकार मात्र है; युद्ध न करना तुम्हारे हाथ की बात नहीं है।
  14. जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार जो वर्तमान जन्म में स्वभावरूप से प्रादुभूत हुए है, उसके समुदाय को प्रकृति यानी स्वभाव कहते है। इस स्वभाव के अनुसार ही मनुष्य का भिन्न-भिन्न कर्मों के अधिकारी समुदाय में जन्म होता है ओर उस स्वभाव के अनुसार ही भिन्न-भिन्न मनुष्यों की भिन्न-भिन्न कर्मों में प्रवृति हुआ करती है। अतएव यहाँ उपर्युक्त वाक्य से भगवान ने यह दिखलाया है कि जिस स्वभाव के कारण तुम्हारा क्षत्रिय कुल में जन्म हुआ है, यह स्वभाव तुम्हारी इच्छा न रखने पर भी तुमको जबर्दस्ती युद्ध में प्रवृत करा देगा। योग्यता प्राप्त होने पर वीरतापूर्वक युद्ध करना, युद्ध से डरना या भागना नहीं, यह तुम्हारा सहज कर्म है; अतएव तुम इसे किये बिना रह नहीं सकोंगे, तुमको युद्ध अवश्य करना पडेगा। यहाँ क्षत्रिय के नाते अर्जुन को युद्ध के विषय में जो बात कही है, वही बात अन्य वर्णवालों को अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों के विषय में समझ लेनी चाहिये।
  15. न्याय से प्राप्त सहजकर्म को न करने का अविवेक के अतिरिक्त दूसरा कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है।
  16. यहाँ भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि युद्ध तो तुम्हे अपने स्वभाव के वश में होकर करना ही पड़ेगा। इसलिये यदि मेरी आज्ञा के अनुसार अर्थात् सत्तावनवें श्लोक में बतलायी हुई विधि के अनुसार उसे करोगे तो कर्मबन्धन से मुक्त होकर मुझें प्राप्त हो जाओगे, नहीं तो राग-द्वेष जाल में फँसकर जन्म-मृत्युरूप संसार सागर में गोते लगाते रहोगे। जिस प्रकार नदी के प्रवाह में बहता हुआ मनुष्य उस प्रवाह का सामना करके नदी पार नहीं जा सकता, वरं अपना लाश कर लेता है और जो किसी नौका या काठ का आश्रय लेकर या तैरने की कला से जल के ऊपर तैरता रहकर उस प्रवाह के अनुकूल चलता है, वह किनारे लगकर उसको पार कर लेता है; उसी प्रकार प्रकृति के प्रवाह में पड़ा हुआ जो मनुष्य प्रकृति का सामना करता है, यानी हठ से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर देता है, वह प्रकृति से पार नहीं हो सकता, वरं उसमें अधिक फँसता जाता है और जो परमेश्‍वर या कर्मयोग का आश्रय लेकर या ज्ञानमार्ग के अनुसार अपने को प्रकृति के ऊपर उठाकर प्रकृति के अनुकूल कर्म करता रहता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त होकर प्रकृति के पार चला जाता हैं। अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैं।

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