महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 36-40

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18


हे भरतश्रेष्‍ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है[1] और दुःखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है[2] जो ऐसा सुख है, वह आरम्भ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है,[3] परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है[4] इसलिये वह परमात्मा विषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख[5] सात्त्विक कहा जाता है। जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है, वह पहले, भोग काल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।[6] जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख[7] तामस कहा गया है। पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कही भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।[8]

सम्बन्ध- इस अध्याय के चौथे से बारहवें श्लोक तक भगवान ने अपने मत के अनुसार त्याग के लक्षण बतलाये। तदनन्तर तेरहवें से सत्रहवें श्लोक तक संन्यास (सांख्य) के स्वरूप का निरूपण करके संन्यास में सहायक सत्त्वगुण का ग्रहण और उसके विरोधी रज एवं तम का त्याग कराने के उद्देश्य से अठारहवें से चालीसवें श्लोक तक गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म और कर्ता आदि मुख्य-मुख्य पदार्थों के भेद समझाये और अंत में समस्त सृष्टि को गुणों से युक्त बतलाकर उस विषय का उपसंहार किया। वहाँ त्याग का स्वरूप बतलाते समय भगवान ने यह बात कही थी कि नियत कर्म का स्वरूप से त्याग उचित नहीं है[9] अपितु नियत कर्मों की आसक्ति और फल के त्यागपूर्वक करते रहना ही वास्तविक त्याग है[10], किंतु वहाँ यह बात नहीं बतलायी कि किसके लिये कौन-सा कर्म नियत है। अतएव अब संक्षेप में नियत कर्मों का स्वरूप, त्याग के नाम से वर्णित कर्म-योग में भक्ति का सहयोग और उसका फल परम सिद्धि की प्राप्ति बतलाने के लिये पुनः उसी त्यागरूप कर्मयोग का प्रकरण आरम्भ करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुष्य को इस सुख का अनुभव तभी होता है, जब वह इस लोक और परलोक के समस्त भोग-सुखों को क्षणिक समझकर उन सबसे आसक्ति हटाकर निरन्तर परमात्मास्वरूप के चिन्तन का अभ्यास करता है (गीता 5/21) बिना साधन के इसका अनुभव नहीं हो सकता- यही भाव दिखलाने के लिये इस सुख का ‘जिसमें अभ्यास से रमण करता है’ यह लक्षण किया गया है।
  2. जिस सुख में रमण करने वाला मनुष्य आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- सब प्रकार के दुःखों के सम्बन्ध से सदा के लिये छूट जाता है जिस सुख के अनुभव का फल निरतिशय सुखस्वरूप सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति बतलाया गया है (गीता 5/21,24; 6/28)- वही सात्त्विक सुख है।
  3. जिस प्रकार बालक अपने घर वालों से विद्या की महिमा सुनकर विद्याभ्यास की चेष्टा करता है, पर उसके महत्त्व का यथार्थ अनुभव न होने के कारण आरम्भ काल में अभ्यास करते समय उसे खेल-कूद को छोड़कर विद्याभ्यास में लगे रहना अत्यन्त कष्टप्रद और कठिन प्रतीत होता है, उसी प्रकार सात्त्विक सुख के लिये अभ्यास करने वाले मनुष्य को भी विषयों का त्याग करके संयमपूर्वक विवेक, वैराग्य, शम, दम और तितिक्षा आदि साधनों में लगे रहना अत्यन्त श्रमपूर्ण और कष्टप्रद प्रतीत होता है यही सात्त्विक सुख का आरम्भ काल में विषके तुल्य प्रतीत होना है।
  4. जब सात्त्विक सुख की प्राप्ति के लिये साधन करते-करते साधक को उस ध्यानजनित सुख का अनुभव होने लगता है, तब उसे वह अमृत के तुल्य प्रतीत होता है उस समय उसके सामने संसार के समस्त भोग-सुख तुच्छ, नगण्य और दुःखरूप प्रतीत होने लगते हैं।
  5. उपर्युक्त प्रकार से अभ्यास करते-करते निरन्तर परमात्मा का ध्यान करने के फलस्वरूप अन्तःकरण के स्वच्छ होने पर इस सुख का अनुभव होता है, इसीलिये इस सुख को परमात्मा बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला बतलाया गया है।
  6. जब मनुष्य मनसहित इन्द्रियों द्वारा किसी विषय का सेवन करता है, तब वह उसे आसक्ति के कारण अत्यन्त प्रिय मालूम होता है उस समय वह उसके सामने किसी भी अदृष्ट सुख को कोई चीज नहीं समझता, परन्तु यह राजस सुख प्रतीतिमात्र का ही सुख है, वस्तुतः सुख नहीं है। प्रत्युत विषयों में आसक्ति बढ़ जाने से पुनः उनकी प्राप्ति ने होने पर अभाव के दुःख का अनुभव होता है तथा उनसे वियोग होते समय भी अत्यन्त दुख होता है। इसलिये विषय और इन्द्रियों के संयोग से होने वाला यह क्षणिक सुख यद्यपि वस्तुतः सब प्रकार के दुःखरूप ही है, तथापि जैसे रोगी मनुष्य आसक्ति-के कारण स्वाद के लोभ से परिणाम का विचार न करके कुपथ्य का सेवन करता है और परिणाम में रोग बढ़ जाने से दुखी होता है या मृत्यु हो जाती है; उसी प्रकार विषयासक्त मनुष्य भी मूर्खता और आसक्ति वश परिणाम का विचार न करके सुख बुद्धि से विषयों का सेवन करता है और परिणाम में अनेकों प्रकार से भाँति-भाँति के भीषण दुःख भोगता है। (गीता 5/22)
  7. निद्रा के समय मन और इन्द्रियों की क्रिया बन्द हो जाने के कारण थकावट से होने वाले दुःख का अभाव होने से तथा मन और इन्द्रियों को विश्राम मिलने से जो सुख की प्रतिती होती है, वह निद्राजनित सुख जितनी देर तक निद्रा रहती है उतनी ही देर तक रहता है, निरन्तर नहीं रहता- इस कारण क्षणिक है। इसके अतिरिक्त उस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियों में प्रकाश का अभाव हो जाता है, किसी भी वस्तु का अनुभव करने की शक्ति नहीं रहती। इस कारण तो वह सुख भोग-काल में आत्मा को यानी अन्तःकरण और इन्द्रियों को तथा इनके अभिमानी पुरुष को मोहित करने वाला है, और इस सुख की आसक्ति के कारण परिणाम में मनुष्य को अज्ञानमय वृक्ष, पहाड़ आदि जड़ योनियों मे जन्म ग्रहण करना पड़ता है, अतएव यह परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है।
    इसी तरह समस्त क्रियाओं का त्याग करके पड़े रहने के समय जो मन, इन्द्रिय, और शरीर के परिश्रम का त्याग कर देने से आराम की प्रतीति होती है, वह आलस्यजनित सुख भी निद्राजनित सुख की भाँति भोगकाल में और परिणामों में ही मोहित करने वाला है।
    व्यर्थ क्रियाओं के करने में मन की प्रसन्नता के कारण कर्तव्य का त्याग करने में परिश्रम से बचने के कारण मूर्खता-वश जो सुख की प्रतीति होती है, उस प्रमाद जनित सुख-भोग के समय मनुष्यों को कर्तव्य-अकर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, उसकी विवेक शक्ति मोह से ढक जाती है अतः कर्तव्य की अवहेलना होती है। इस कारण यह प्रमादजनित सुख भोगकाल में आत्मा को मोहित करने वाला है तथा उपर्युक्त व्यर्थ कर्मों में अज्ञान और आसक्तिवश होने वाला झूठ, कपट, हिंसा आदि पापकर्मों और कर्तव्य कर्मों के त्याग का फल भोगने के लिये ऐसा करने वालों को सूकर-कूकर आदि नीच योनियों की और नरकों की प्राप्ति होती है इससे यह परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है।
  8. ‘सत्त्व’ शब्द यहाँ वस्तु मात्र यानी सब प्रकार के प्राणियों का और समस्त पदार्थों का वाचक है ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो क्‍योंकि समस्त जड़वर्ग तो गुणों का कार्य होने से गुणमय है ही और समस्त प्राणियों का उन गुणों से और गुणों के कार्यरूप पदार्थों से सम्बन्ध है, इससे यह सब भी तीनों गुणो से युक्त ही है इसलिये पृथ्वीलोक, अन्तरिक्षलोक तथा देवलोक के एवं अन्य सब लोक के प्राणी एवं पदार्थ सभी इन तीनों गुणों से युक्त है।
  9. गीता 28:7
  10. गीता 28:9

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