पंअष्टपण्चाशदधिकशततम (158) अध्याय: द्रोण पर्व (घटोत्कचवध पर्व)
महाभारत: द्रोणपर्व: अष्टपण्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 59-70 का हिन्दी अनुवाद
'दुर्योधन, द्रोण, शकुनि, दुर्मुख, जय, दुःशासन, वृषसेन, मद्रराज शल्य, तुम स्वंय, सोमदत्त, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और विविंशति-ये युद्ध कुशल सम्पूर्ण वीर जहाँ कवच बांधकर खड़े हो जायंगे, वहाँ इन्हें कौन मनुष्य जीत सकता है? वह इन्द्र के तुल्य बलवान शत्रु ही क्यों न हो (इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता)। 'जो शूरवीर, अस्त्रों के ज्ञाता, बलवान, स्वर्ग-प्राप्ति की अभिलाषा रखने वाले, धर्मज्ञ और युद्ध कुशल हैं, वे देवताओं को भी युद्ध में मार सकते हैं। 'ये वीरगण कुरुराज दुर्योधन की जय चाहते हुए पाण्डवों के वध की इच्छा से संग्राम में कवच बांधकर डट जांयेगे। 'मैं तो बड़े से बड़े बलवानों की भी विजय दैव के ही अधीन मानता हूँ। दैवाधीन होने के ही कारण महाबाहु भीष्म आज सैकड़ों बाणों से विद्ध होकर रणभूमि में शयन करते हैं। 'विकर्ण, चित्रसेन, बाह्लीक, जयद्रथ, भूरिश्रवा, जय, जलसंघ, सुदक्षिण, रथियों में श्रेष्ठ शल तथा पराक्रमी भगदत्त और दूसरे भी बहुत-से राजा देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्जय थे। 'परंतु उन अत्यन्त प्रबल तथा शूरवीर नरेशों को भी पाण्डवों ने युद्ध में मार डाला पुरुषाधम! तुम इसमें दैव संयोग के सिवा दूसरा कौन-सा कारण मानते हो। ब्रह्मन! तुम दुर्योधन के जिन शत्रुओं की सदा स्तुती करते रहते हों, उनके भी तो सैकड़ों और सहस्रों शूरवीर मारे गये हैं। 'कौरव तथा पाण्डव दोनों दलों की सारी सेनाएं प्रतिदिन नष्ट हो रही है। मुझे इसमें किसी प्रकार भी पाण्डवों का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखायी देता है। ’द्विजाधम! तुम जिन्हें सदा बलवान मानते रहते हो, उन्हीं के साथ मैं संग्रामभूमि में दुर्योधन के हित के लिये यथाशक्ति युद्ध करने का प्रयत्न करूंगा। विजय तो दैव के अधीन है’। इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अंतगर्त घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में कृपाचार्य और कर्ण का विवादविषयक एक सौ अटानहवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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