महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 22 भाग-1

द्वाविंश (22) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: द्वाविंश अध्याय: का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर तथा श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण
मार्कण्डेय जी के द्वारा विविध प्रश्न और नारद जी के द्वारा उनका उत्तर

युधिष्ठिर ने पूछा- नरेश्वर! महाराज! पुत्रों द्वारा पुरुष का कैसे उद्धार होता है? जब तक पुत्र की प्राप्ति न हो, तब तक पुरुष का जीवन निष्फल क्यों माना जाता है?

भीष्म जी ने कहा- राजन! इस विषय में इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। पूर्वकाल में मार्कण्डेय के पूछने पर देवर्षि नारद ने जो उपदेश दिया था, उसी का इस इतिहास में उल्लेख हुआ है। पहले की बात है, गंगा-यमुना के मध्य भाग में जहाँ भगवती का समागम हुआ है, वहीं पर्वत, नारद, असित, देवल, आरूणेय और रैभ्य- ये ऋषि एकत्र हुए थे। इन सब ऋषियों को वहाँ पहले से विराजमान देख मार्कण्डेय जी भी गये। ऋषियों ने जब मुनि को आते देखा, तब वे सब-के-सब उठकर उनकी ओर मुख करके खड़े हो गये और उन ब्रह्मर्षि की उनके योग्य पूजा करके सब ने पूछा- 'हम आपकी क्या सेवा करें?'

मार्कण्डेय जी ने कहा- मैंने बड़े यत्न से सत्पुरुषों का यह संग प्राप्त किया है। मुझे आशा है, यहाँ धर्म और आचार का निर्णय प्राप्त होगा। सत्ययुग में धर्म का अनुष्ठान सरल होता है। उस युग के समाप्त हो जाने पर धर्म का स्वरूप मनुष्यों के मोह से आच्छन्न हो जाता है; अतः प्रत्येक युग के धर्म का क्या स्वरूप है? इसे मैं आप सब महर्षियों से जानना चाहता हूँ।

भीष्म जी कहते हैं- राजन! तब सब ऋषियों ने मिलकर नारद जी से कहा- 'तत्त्वज्ञ देवर्षे! मार्कण्डेय जी को जिस विषय में संदेह है, उसका आप निरूपण कीजिये; क्योंकि धर्म और अधर्म के विषय में होने वाले समस्त संशयों का निवारण करने में आप समर्थ हैं।' ऋषियों की यह अनुमति और आदेश पाकर नारद जी ने सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले मार्कण्डेय जी से पूछा। नारद जी बोले- 'तपस्या से प्रकाशित होने वाले दीर्घायु मार्कण्डेय जी! आप तो स्वयं ही वेदों और वेदांगों के तत्त्व को जानने वाले हैं, तथापि ब्रह्मन! जहाँ आपको संशय उत्पन्न हुआ हो, वह विषय उपस्थित कीजिये। महातपस्वी महर्षे! धर्म, लोकोपकार अथवा और जिस किसी विषय में आप सुनना चाहते हों, उसे कहिये। मैं उस विषय का निरूपण करूँगा।'

मार्कण्डेय जी बोले- प्रत्येक युग के बीत जाने पर धर्म की मर्यादा नष्ट हो जाती है। फिर धर्म के बहाने से अधर्म करने पर मैं उस धर्म का फल कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? मेरे मन में यही प्रश्न उठता है।

नारद जी ने कहा- विप्रवर! पहले सत्ययुग में धर्म अपने चारों पैरों से युक्त होकर सबके द्वारा पालित होता था। तदनन्तर समयानुसार अधर्म की प्रवृत्ति हुई और उसने अपना सिर कुछ ऊँचा किया। तदनन्तर धर्म को अंशतः दूषित करने वाले त्रेता नामक दूसरे युग की प्रवृत्ति हुई। जब वह भी बीत गया, तब तीसरे युग द्वापर का पदार्पण हुआ। उस समय धर्म के दो पैरों को अधर्म नष्ट कर देता है। द्वापर के नष्ट होने पर जब नन्दिक (कलियुग) उपस्थित होता है, उस समय लोकाचार और धर्म का जैसा स्वरूप रह जाता है, उसे बताता हूँ, सुनिये। चौथे युग का नाम है नन्दिक। उस समय धर्म का एक ही पाद अंशशेष रह जाता है। तभी से मन्दबुद्धि और अल्पायु मनुष्य उत्पन्न होने लगते हैं। लोक में उनकी प्राण-शक्ति बहुत कम हो जाती है। वे निर्धन तथा धर्म और सदाचार से बहिष्कृत होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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