महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-8

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-8 का हिन्दी अनुवाद


पहले के जो तीन वर्ण हैं, वे सब शूद्रमूलक ही हैं, क्योंकि शूद्र ही सेवा का कर्म करने वाले माने गये हैं। ब्राह्मण आदि की सेवा ही दास या शूद्र का धर्म माना गया है। वाणिज्य, कारीगर के कार्य, शिल्प तथा नाट्य भी शूद्र का धर्म है। उसे अहिंसक, सदाचारी और देवताओं तथा ब्राह्मणों का पूजक होना चाहिये। ऐसा शूद्र अपने धर्म से सम्पन्न और उसके अभीष्ट फलों का भागी होता है। यह तथा और भी शूद्र-धर्म कहा गया है।

शोभने! इस प्रकार मैंने तुम्हें एक-एक करके चारों वर्णों का सारा धर्म बतलाया। सुभगे! अब और क्या सुनना चाहती हो?

उमा बोलीं- भगवन! देवदेवेश्वर! वृषभध्वज! देव! आपको नमस्कार है। प्रभो! अब मैं आश्रमियों का धर्म सुनना चाहती हूँ।

श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! एकाग्रचित्त होकर आश्रमधर्म का वर्णन सुनो। ब्रह्मवादी मुनियों ने आश्रमों का जो धर्म निश्चित किया है, वही यहाँ बताया जा रहा है।। आश्रमों में गृहस्थ-आश्रम सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह गार्हस्थ्य धर्म पर प्रतिष्ठित है। पंच महायज्ञों का अनुष्ठान, बाहर-भीतर की पवित्रता, अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहना, आलस्य को त्याग देना, ऋतुकाल में ही पत्नी के साथ समागम करना, दान, यज्ञ और तपस्या में लगे रहना, परदेश न जाना और अग्निहोत्रपूर्वक वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय करना- ये गृहस्थ के अभीष्ट धर्म हैं।

इसी प्रकार वानप्रस्थ आश्रम के सनातन धर्म बताये गये हैं। वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने की इच्छा वाला पुरुष एकचित्त होकर निश्चय करने के पश्चात् घर का रहना छोड़कर वन में चला जाये और वन में प्राप्त होने वाले उत्तम आहारों से ही जीवन-निर्वाह करे। यही उसके लिये शास्त्रविहित मर्यादा है।। पृथ्वी पर सोना, जटा और दाढ़ी-मूँछ रखना, मृगचर्म और वल्कल वस्त्र धारण करना, देवताओं और अतिथियों का सत्कार करना, महान् कष्ट सहकर भी देवताओं की पूजा आदि का निर्वाह करना- यह वानप्रस्थ का नियम है। उसके लिये प्रतिदिन अग्निहोत्र और त्रिकाल-स्नान का विधान है। ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौच आदि उसका सनातन धर्म है। ऐसा करने वाला वानप्रस्थ प्राणत्याग के पश्चात् देवलोक में प्रतिष्ठित होता है।

देवि! यतिधर्म इस प्रकार है। संन्यासी घर छोड़कर इधर-उधर विचरता रहे। वह अपने पास किसी वस्तु का संग्रह न करे। कर्मों के आरम्भ या आयोजन से दूर रहे। सब ओर से पवित्रता और सरलता को वह अपने भीतर स्थान दे। सर्वत्र भिक्षा से जीविका चलावे। सभी स्थानों से वह विलग रहे। सदा ध्यान में तत्पर रहना, दोषों से शुद्ध होना, सब पर क्षमा और दया का भाव रखना तथा बुद्धि को तत्त्व के चिन्तन में लगाये रखना- ये सब संन्यासी के लिये धर्म कार्य हैं।

वरारोहे! जो भूख-प्यास से पीड़ित और थके-मादे आये हुए अतिथि की सेवा-पूजा करते हैं, उन्हें भी महान् फल की प्राप्ति होती है। धर्म की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि अपने घर पर आये हुए सभी अतिथियों को दान का उत्तम पात्र समझकर दान दें। उन्हें यह विश्वास रखना चाहिये कि आज जो पात्र आयेगा, वह हमारा उद्धार कर देगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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