महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 141 भाग-7

एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-7 का हिन्दी अनुवाद


देवि! मेरे द्वारा जो क्षत्रिय-धर्म बताया गया है, उसी का अब तुम्हारे समक्ष वर्णन करता हूँ, तुम मुझसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। क्षत्रिय का सबसे पहला धर्म है प्रजा का पालन करना। प्रजा की आय के छठे भाग का उपभोग करने वाला राजा धर्म का फल पाता है। देवि! क्षत्रिय, ब्राह्मणों के पालन में तत्पर रहते हैं। यदि संसार में क्षत्रिय न होता तो इस जगत में भारी उलट-फेर या विप्लव मच जाता। क्षत्रियों द्वारा रक्षा होने से ही यह जगत सदा टिका रहता है। उत्तम गुणों का सम्पादन और पुरवासियों का हितसाधन उसके लिये धर्म है। गुणवान राजा सदा न्याययुक्त व्यवहार में स्थित रहे। जो राजा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करता है, उसे उसके प्रजापालनरूपी धर्म के प्रभाव से उत्तम लोक प्राप्त होते हैं। राजा का परम धर्म है- इन्द्रियसंयम, स्वाध्याय, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, यज्ञोपवीत-धारण, यज्ञानुष्ठान, धार्मिक कार्य का सम्पादन, पोष्यवर्ग का भरण-पोषण, आरम्भ किये हुए कर्म को सफल बनाना, अपराध के अनुसार उचित दण्ड देना, वैदिक यज्ञादि कर्मों का अनुष्ठान करना, व्यवहार में न्याय की रक्षा करना और सत्यभाषण में अनुरक्त होना। ये सभी कर्म राजा के लिये धर्म ही हैं।

जो राजा दु:खी मनुष्यों को हाथ का सहारा देता है, वह इस लोक और परलोक में भी सम्मानित होता है। गौओं और ब्राह्मणों को संकट से बचाने के लिये जो पराक्रम दिखाकर संग्राम में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह स्वर्ग में अश्वमेध यज्ञों द्वारा जीते हुए लोकों पर अधिकार जमा लेता है।

देवि! इसी प्रकार वैश्य भी लोगों की जीवन यात्रा के निर्वाह में सहायक माने गये हैं। दूसरे वर्णों के लोग उन्हीं के सहारे जीवन-निर्वाह करते हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष फल देने वाले हैं। यदि वैश्य न हों तो दूसरे वर्ण के लोग भी न रहें। पशुओं का पालन, खेती, व्यापार, अग्निहोत्रकर्म, दान, अध्ययन, सन्मार्ग का आश्रय लेकर सदाचार का पालन, अतिथि-सत्कार, शम, दम, ब्राह्मणों का स्वागत और त्याग- ये सब वैश्यों के सनातन धर्म हैं। व्यापार करने वाले सदाचारी वैश्य को तिल, चन्दन और रस की बिक्री नहीं करनी चाहिये तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- इस त्रिवर्ग का सब प्रकार से यथाशक्ति यथायोग्य आतिथ्य सत्कार करना चाहिये।

शूद्र का परम धर्म है तीनों वर्णों की सेवा। जो शूद्र सत्यवादी, जितेन्द्रिय और घर पर आये हुए अतिथि की सेवा करने वाला है, वह महान तप का संचय कर लेता है। उसका सेवारूप धर्म उसके लिये कठोर तप है। नित्य सदाचार का पालन और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करने वाले बुद्धिमान शूद्र को धर्म का मनोवांछित फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण धर्मों के साधक बताये गये हैं। यदि शूद्र न हों तो सेवा का कार्य करने वाला कोई नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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