एकचत्वारिंशदधिकशततम (141) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-9 का हिन्दी अनुवाद
शोभने! जैसे भूतल पर वर्षा के समय गिरती हुई जल की छोटी-छोटी बूँदों से ही खेतों की क्यारियाँ, तालाब, सरोवर और सरिताएँ अतर्क्य भाव से जलपूर्ण दिखायी देती हैं, उसी प्रकार एक-एक करके थोड़ा-थोड़ा दिया हुआ दान भी बढ़ जाता है। भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजनों को थोड़ा-सा कष्ट देकर भी यदि दान किया जा सके तो दान ही श्रेष्ठ माना गया है। स्त्री-पुत्र, धन और धान्य- ये वस्तुएँ मरे हुए पुरुषों के साथ नहीं जाती हैं। यशस्विनी! धन पाकर उसका दान और भोग करना भी श्रेष्ठ है, परंतु दान करने से मनुष्य महान् सौभाग्यशाली नरेश होते हैं। इस पृथ्वी पर दान के समान कोई दूसरी वस्तु नहीं है। दान के समान कोई निधि नहीं है। सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और असत्य से बढ़कर कोई पातक नही है। जो वानप्रस्थ आश्रम में फल-मूल खाकर जटा बढ़ाये, वल्कल पहने, सूर्य की ओर मुँह करके तपस्या करता है, हेमन्त ऋतु में मेढक की भाँति जल में सोता है और ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि का ताप सहन करता है। इस प्रकार जो लोग वानप्रस्थ आश्रम में रहकर श्रद्धापूर्वक उत्तम तप करते हैं, वे भी गृहस्थाश्रम के पालन से होने वाले धर्म की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते। उमा ने कहा- प्रभो! गृहस्थाश्रम का जो आचार है, जो व्रत और नियम हैं, गृहस्थ को सदा जिस प्रकार से देवताओं की पूजा करनी चाहिये तथा तिथि और पर्वों के दिन उसे जिस-जिस वस्तु का त्याग करना चाहिये, वह सब मैं आपके मुख से सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! गृहस्थ आश्रम का जो मूल और फल है, यह उत्तम धर्म जहाँ अपने चारों चरणों से सदा विराजमान रहता है, वरारोहे! जैसे दही से घी निकाला जाता है, उसी प्रकार जो सब धर्मों का सारभूत है, उसको मैं तुम्हें बता रहा हूँ। धर्मचारिणि! सुनो। जो लोग गृहस्थ आश्रम में रहकर माता-पिता की सेवा करते हैं, जो नारी पति की सेवा करती है तथा जो ब्राह्मण नित्य अग्निहोत्र कर्म करते हैं, उन सब पर इन्द्र आदि देवता, पितृलोक निवासी पितर प्रसन्न होते हैं एवं वह पुरुष अपने धर्म से आनन्दित होता है। उमा ने पूछा- जिन गृहस्थों के माता-पिता न हों, उनकी अथवा विधवा स्त्रियों की जीवनचर्या क्या होनी चाहिये? यह मुझे बताइये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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