महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-8

त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-8 का हिन्दी अनुवाद


उन दुर्जय परमात्‍मा को बारंबार प्रणाम करके उनकी ओर देखकर मेरे नेत्र आश्‍चर्य से खिल उठे ओर मैंने मस्तक पर अंजलि बांधे उन श्रेष्‍ठ पुरुषों में भी सर्वश्रेष्‍ठ एवं उदार पुरुषोत्‍तम से कहा- 'भूत, वर्तमान और भविष्‍य के स्‍वामी भगवान नारायणदेव! आपको नमस्‍कार है। देव! मैंने आपके आश्रित जो यह अद्भुत दृश्‍य देखा है, इसका कहीं आदि, मध्‍य ओर अन्‍त नहीं है। वह सब क्‍या है, यह बताने की कृपा करें। यदि आप मुझे अपना भक्‍त समझते हैं अथवा यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है तो यह सब यदि मेरे सुनने योग्‍य हो तो पूर्ण रूप से बताइये। आपका स्‍वभाव दुर्ज्ञेय है। आप अजन्‍मा परमेश्‍वर का प्रादुर्भाव भी समझ में आना कठिन है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य के स्‍वामी नारायण! आप सर्वथा गहन (अगम्‍य) हैं। महामुने! वह सारा आश्‍चर्यजनक एवं अद्भुत वृत्तान्‍त जो उन अग्नियों के चारों ओर देखा गया, क्‍या था? यह पूर्णरूप से बताने की कृपा करें। वे अग्निहोत्र कौन थे? निरन्‍तर वेदों का श्रवण और पाठ करने वाले वे अदृश्‍य महात्‍मा कौन थे, जिनका शब्‍द मात्र मैंने सुना था? भगवान श्रीकृष्‍ण! यह सब आप पूर्णरूप से मुझे बताइये। जो लोग अग्नि के समीप वेदों का पारायण कर रहे थे, वे ब्राह्मण समूह महात्‍मा कौन थे?'

श्री भगवान बोले- 'गरुड़! मुझे न तो देवतागन्धर्व, न पिशाच और न राक्षस ही तत्‍व से जानते हैं। मैं सम्‍पूर्ण तत्‍वों में उनके सूक्ष्‍म आत्‍मारूप से अवस्थित हूँ। पृथ्‍वी, वायु, आकाश जल, अग्नि, मन, बुद्धि, तेज (अहंकार), सत्‍वगुण, रजोगुण और तमोगुण, प्रकृति, विकृति, विद्या, अविद्या तथा शुभ और अशुभ- ये सब मुझसे ही उत्‍पन्‍न होते हैं। मैं इनसे किसी प्रकार उत्‍पन्‍न नहीं होता। मनुष्‍य कल्‍याणभावना से युक्‍त हो जिस किसी पवित्र, धर्मयुक्‍त एवं श्रेष्‍ठ भाव का निश्चय करता है, वह सब मैं निरामय परमेश्‍वर ही हूँ। स्‍वभाव एवं आत्मा के तत्त्व को जानने वाले पुरुष विभिन्‍न हेतुओं द्वारा जिसका साक्षात्‍कार करते हैं, वह आदि, मध्‍य और अन्‍त से रहित सर्वान्‍तरात्‍मा सनातन पुरुष मैं ही हूँ। सूक्ष्‍म अर्थ को देखने और समझने वाले तथा सूक्ष्‍म भाव को जानने वाले ज्ञानी पुरुष मेरे जिस परम गुह्य रूप को ग्रहण करते हैं, वह चिन्‍तनीय सनातन परमात्‍मा मैं ही हूँ। जो मेरा परम गुह्य रूप है और जिससे यह सम्‍पूर्ण जगत व्‍याप्‍त है, वह सर्वसत्‍वरूप परमात्‍मा मैं ही हूँ। मैं ही सबका अविनाशी कारण हूँ।

गरुड़! सम्‍पूर्ण भूत प्राणी मुझसे ही उत्‍पन्‍न हुए हैं, मेरे ही द्वारा वे अहर्निश जीवन धारण करते हैं और प्रलय के समय सब-के-सब मुझ में ही लीन हो जाते हैं। कश्यप! जो मुझे जैसा जानता है, उसके लिये मैं वेसा ही हूँ। विहंगम! मैं सभी के मन और बुद्धि में रहकर सबका कल्‍याण करता हूँ। पक्षिप्रवर! तुमने मेरे तत्‍व को जानने का विचार किया था, अत: मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? किस उद्देश्‍य की सिद्धी के लिय उद्यत हुआ हूँ? यह सब बताता हूँ, सुनो।

जो कोई ब्राह्मण अपने मन को वश में करके त्रिविध अग्नियों की उपासना करते हैं, नित्‍य अग्निहोत्र में तत्‍पर और जप-होम में संलग्‍न हैं, जो नियमपूर्वक रहकर अपनी इन्द्रियों को वश में करके अपने आप में ही अग्नियों का आधान कर लेते हैं तथा सब-के-सब अनन्‍यचित्त होकर मेरी ही उपासना करते हैं, जो अपने को पूर्ण संयम में रखकर जप, यज्ञ और मानस यज्ञों द्वारा मेरी आराधना करते हैं, जो सदा अग्निहोत्र में ही तत्‍पर रहकर अग्नियों का स्‍वागत करते हैं तथा अन्‍य कार्य में रत न होकर शुद्ध भाव से सदा अग्नि की परिचर्या करते है, ऐसी बुद्धि वाले धीर पुरुष वैसे भक्तिभाव से सम्‍पन्‍न होते हैं, वे मुझे प्राप्‍त कर लेते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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