त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-7 का हिन्दी अनुवाद
जो हिरण्यगर्भ, सौम्य, वृषरूपधारी, नारायण, श्रेष्ठ शरीरधारी, पुरुहूत (इन्द्र) तथा वज्र धारण करने वाले हैं, जो धर्मात्मा, वृषसेन, धर्मसेन तथा तटरूप हैं, उन भगवान श्रीहरि को नमस्कार है। जो मननशील मुनि, ज्वर आदि रोगों से मुक्त तथा ज्वर के अधिपति हैं, जिनके नेत्र नहीं हैं अथवा जिनके तीन नेत्र नहीं हैं, जो पिंगल वर्ण वाले तथा प्रजारूपी लहरों की उत्पति के लिये महासागर के समान हैं, उन भगवान विष्णु को नमस्कार है। जो तप और वेद की निधि हैं, बारी-बारी से युगों का परिवर्तन करने वाले हैं, सबके शरणदाता, शरणागतवत्सल और शक्तिशाली पुरुष के लिये अभीष्ट आश्रय हैं, सम्पूर्ण संसार के अधीश्वर एवं भूत, वर्तमान और भविष्य हैं, उन भगवान नारायण को नमस्कार है। देवदेवेश्वर! आप मेरी रक्षा करें। सनातन परमात्मन! आप कोई अनिर्वचनीय अजन्मा पुरुष हैं, ब्राह्मणों के शरणदाता हैं, मैं इस संकट में पड़कर आपकी ही शरण लेता हूँ।' इस प्रकार स्तवनीय परमेश्वर की स्तुति करते ही मेरा वह सारा दु:ख नष्ट हो गया। तत्पश्चात मुझे किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा कही हुई यह मंगलमयी दिव्य वाणी सुनायी दी। श्रीभगवान बोले- 'गरुड़! तुम डरो मत। तुमने मन और इन्द्रियों को जीत लिया है। अब तुम पुन: इन्द्र आदि देवताओं के सहित अपने घर में जाकर पुत्रों और भाई-बन्धुओं को देखोगे।' गरुड़ जी कहते हैं- 'मुनियों! तदनन्तर उसी क्षण वे परम कान्तिमान तेजस्वी नारायण सहसा मेरे सामने अत्यन्त निकट दिखायी दिये। तब उन मंगलमय परमात्मा से मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर मैंने देखा, वे आठ भुजाओं वाले सनातनदेव पुन: नर-नारायण के आश्रम की ओर आ रहे हैं। वहाँ मैनें देखा, ऋषि यज्ञ कर रहे हैं, देवता बातें कर रहे है, मुनि लोग ध्यान में मग्न हैं, योगयुक्त सिद्ध ओर नैष्ठिक ब्रह्मचारी जप करते हैं तथा गृहस्थ लोग यज्ञों के अनुष्ठान में संलग्न हैं। नर-नारायण का आश्रम धूप से सुगन्धित ओर दीप से प्रकाशित हो रहा था। वहाँ चारों ओर ढेर-के-ढेर फूल बिखरे हुए थे। वह आश्रम सबके लिये हितकर एवं सत्पुरुषों द्वारा वन्दित था। झाड़-बुहार कर स्वच्छ बनाया और सींचा गया था। निष्पाप मुनियों! उस अद्भुत दृश्य को देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ और मैंने पवित्र एवं एकाग्र हृदय से मस्तक झुकाकर उन भगवान की शरण ली। वह सब अद्भूत-सा दृश्य क्या था, यह बहुत सोचने पर भी मेरी समझ में नहीं आया। सबकी उत्पति के कारण भूत उन परमात्मा के परम दिव्यभाव को मैं नहीं समझ सका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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