त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-9 का हिन्दी अनुवाद
मेरा चिन्तन करने के कारण जिनका अन्त:करण पवित्र हो गया है, जो सदा मेरी ही उपासना में रत हैं, वे ही वहाँ रोग-शोक से रहित एवं ज्योति:स्वरूप होकर मेरी ही उपासना किया करते हैं। वे अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होकर वीतराग हृदय से वदा वहीं निवास करेंगे। उनकी अंगकान्ति चन्द्रमा की किरणों के समान उज्जवल है। वे निराहार, श्रम बिन्दुओं से रहित, निर्मल, अहंकारशून्य, आलम्बनरहित और निष्काम हैं। उनकी सदा मुझ में भक्ति बनी रहती है तथा मैं भी उनका भक्त (प्रेमी) बना रहता हूँ। मैं अपने को चार स्वरूपों में विभक्त करके जगत के हित साधन में तत्पर हो विचरता रहता हूँ। सम्पूर्ण लोक जीवित एवं सुरक्षित रहें, इसके लिये मैं विधान बनाता हूँ। वह सब तुम यथार्थ रूप से सुनने के अधिकारी हो। तात! मेरी एक निर्गुण मूर्ति है, जो परम योग का आश्रय लेकर रहती है। दूसरी वह मूर्ति है, जो चराचर प्राणि समुदाय की सृष्टि करती है। तीसरी मूर्ति स्थावर-जंगम जगत का संहार करती है और चौथी मूर्ति आत्मनिष्ठ है, जो आसुरी शक्तियों को माया से मोहित-सी करके उन्हें नष्ट कर देती है। अपनी माया से दुष्टों को मोहित और नष्ट करने वाली जो मेरी चौथी आत्मनिष्ठ महामूर्ति है, वह नियमपूर्वक रहकर जगत की वृद्धि और रक्षा करती है। गरुड़! वही मैं हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है। सारा जगत मुझ में ही प्रतिष्ठित है। मैं ही सम्पूर्ण जगत का बीज हूँ। मेरी सर्वत्र गति है और में अविनाशी हूँ। विहंगम! वे जो अग्निहोत्र थे तथा जो चन्द्रमा की किरणों पुंज-जैसी कान्ति वाले पुरुष निरन्तर उन अग्नियों के समीप बैठकर वेदों का पाठ करते थे, वे ज्ञान सम्पन्न एवं सुखी होकर क्रमश: मुझे प्राप्त होते हैं। मैं ही उनका उद्दीप्त तप और सम्यक रूप से संचित तेज हूँ। वे सदा मुझ में विद्यमान हैं और मैं उनमें सावधान हुआ रहता हूँ। जो सब ओर से आसक्तिशून्य है, वह मुझे में अनन्य भाव से चित्त को एकाग्र करके ज्ञानदृष्टि से मेरा साक्षात्कार कर सकता है। जो संन्यास का आश्रय लेकर अनन्यभाव से मेरे ध्यान में तत्पर रहते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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