महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-6

त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयोदश अध्याय: 13 भाग-6 का हिन्दी अनुवाद


मैं बड़े वेग से वहाँ के हज़ारों घरों में घूम आया, परंतु कहीं भी अपने उन आराध्‍य देव को न देख सका, इससे मुझे बड़ी व्‍यथा हुई। निर्मल ज्‍वालाओं से युक्‍त वे अग्निहोत्र पूर्ववत् प्रकाशति हो रहे थे। उनके समीप भी मुझे कहीं सनातन देवाधिदेव श्री‍हरि नहीं दिखायी दिये। तब मैं उन प्रदीप्‍त अग्निहोत्रों की परिक्रमा करते-करते थक गया। मेरी सारी इन्द्रियां व्‍याकुल हो उठीं, परंतु उनका कहीं अन्‍त नहीं दिखायी दिया। जिन भगवान ने मुझे यहाँ आने के लिये प्रेरित किया था, उनका दर्शन नहीं हो सका।

इस तरह चिन्‍ता में पड़कर मैं भगवान का ध्‍यान करने लगा एवं विनय से नतमस्‍तक होकर मैंने निम्‍नांकित नामों द्वारा आदि-अन्‍त से रहित परमात्‍मा महामनस्‍वी नारायण की वन्‍दना आरम्‍भ की- 'जो शुद्ध, सनातन, ध्रुव, भूत, वर्तमान और भविष्‍य के स्‍वामी, शिवस्‍वरूप ओर मंगलमूर्ति हैं, कल्‍याण के उत्‍पतिस्‍थान हैं, शिव के भी आदिकारण तथा भगवान शिव के भी परम पूजनीय हैं, उन नारायण देव को नमस्‍कार है। जो कल्‍प का अन्‍त करने के लिये अत्‍यन्‍त घोर रूप धारण करते हैं, जो विश्‍वरूप, विश्‍वदेव, विश्‍वेश्‍वर एवं परमात्‍मा हैं, उन श्रीहरि को नमस्‍कार है। जिनके सहस्रों उदर, सहस्रों पैर और सहस्रों नेत्र हैं, जो सहस्रों भुजाओं ओर सहस्रों मुखों से सुशोभित हैं, उन भगवान विष्‍णु को नमस्‍कार है। जो हृषीकेश (सम्‍पूर्ण इन्द्रियों के नियन्‍ता), कृष्‍ण (सच्चिदानंदस्वरूप), द्रुहिण (ब्रह्मा), ऊरुक्रम (बहुत बड़े डग भरने वाले त्रिविक्रम), ब्रह्मा एवं इन्‍द्ररूप, गरुड़स्‍वरूप तथा एक सींग वाले वराहरूपधारी हैं, उन भगवान विष्‍णु को नमस्‍कार है।

जो शिपिविष्‍ट (तेजस से व्‍याप्‍त), सत्‍य, हरि और शिखण्‍डी (मोरपंखधारी श्रीकृष्‍ण) आदि नामों से प्रसिद्ध हैं, जो हुत (हविष्‍य को ग्रहण करने वाले अग्निरूप), उर्ध्‍वमुख, रुद्र की सेना, साधु, सिन्‍धु, समुद्र में वर्षा का हनन करने वाले तथा देवसिन्‍धु (गंगास्‍वरूप) हैं, उन भगवान विष्‍णु को प्रणाम है। जो गरुड़रूपधारी, तीन नेत्रों युक्‍त (रुद्ररूप), उत्‍तम धाम वाले, वृषावृष, धर्मपालक, सबके सम्राट, उग्ररूपधारी, उत्‍तम कृति वाले, रजोगुणरहित, सबकी उत्‍पति के कारण तथा भवरूप हैं, उन श्रीहरि को नमस्‍कार है। जो वृष (अभीष्‍ट वस्‍तुओं की वर्षा करने वाले) वृष रूप (धर्मस्‍वरूप), विभु (व्‍यापक) तथा भूर्लोक और भुवर्लोकमय हैं, जो तेजस्‍वी पुरुषों द्वारा सम्‍पादित यज्ञरूप हैं, स्थिर हैं, और स्‍थविररूप (वृद्ध) हैं, उन भगवान को नमस्‍कार है।

जो अपनी महिमा से कभी च्युत नहीं होते, हिम के समान शीतल हैं, जिनमें वीरत्‍व है, जो सर्वत्र समभाव से स्थित हैं, विजयशील हैं, जिन्‍हें बहुत लोग लोग पुकारते हैं अथवा जो इन्‍द्ररूप हैं तथा जो सर्वश्रेष्‍ठ वसिष्‍ठ हैं, उन भगवान को नमस्‍कार है। जो सत्‍य और देवताओं के स्‍वामी हैं, हरि (श्‍यामसुन्‍दर) और शिखण्‍डी (मोरमुकुटधारी) हैं, जो कुशा पर बैठने वाले सर्वश्रेष्‍ठ वसुरूप हैं, उन विश्वस्रष्टा भगवान विष्‍णु को नमस्‍कार है। जो किरीटीधारी, सुन्‍दर केशों से सुशोभित तथा पराक्रमी वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण रूप हैं, बृहदुक्‍थ साम जिनका स्‍वरूप है, जो सुन्‍दर सेना से युक्‍त हैं, जुए का भार संभालने वाले वृषभरूप हैं तथा दुन्‍दुभि नामक वाद्य विशेष हैं, उन भगवान को नमस्‍कार है। जो इस जगत में जीवमात्र के सखा हैं, व्‍यापक रूप हैं, भरद्वाज को अभय देने वाले हैं, सूर्य रूप से प्रभा का विस्‍तार करने वाले हैं, श्रेष्‍ठ पुरुषों के स्‍वामी हैं, जिनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है और जो महान हैं, उन भगवान नारायण को नमस्‍कार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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