कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 103-121 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 103-121 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
− | उनके यज्ञ में एक लाख दस हजार राजा सेवा कार्य करते थे। वे सभी अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर दक्षिणायन के पश्चात् आने वाले उत्तरायण मार्ग से ब्रह्मलोक में चले गये थे। | + | |
+ | 'उनके यज्ञ में एक लाख दस हजार राजा सेवा कार्य करते थे। वे सभी [[अश्वमेध यज्ञ]] का फल पाकर दक्षिणायन के पश्चात् आने वाले उत्तरायण मार्ग से [[ब्रह्मलोक]] में चले गये थे। [[सृंजय]]! राजा अम्बरीष चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़कर थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी जीवित न रह सके तो दूसरे के लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक न करो। सृंजय! हम सुनते हैं कि [[चित्ररथ]] के पुत्र [[शशबिन्दु]] भी मृत्यु से अपनी रक्षा न कर सके। उन महामना नरेश के एक लाख रानियाँ थी और उनके गर्भ से राजा के दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी राजकुमार सुवर्णमय कवच धारण करने वाले और उत्तम धनुर्धर थे। एक-एक राजकुमार को अलग-अलग सौ-सौ कन्याएँ व्याही गयी थीं। प्रत्येक कन्या के साथ सौ-सौ हाथी प्राप्त हुए थे। हर एक हाथी के पीछे सौ-सौ रथ मिले थे। प्रत्येक रथ के साथ सुवर्ण मालाधारी सौ-सौ घोडे़ थे। हर एक अश्व के साथ सौ गायें और एक-एक गाय के साथ सौ-सौ भेड़-बकरियाँ प्राप्त हुई थीं। महाराज! राजा शशबिन्दु ने यह अनन्त धनराशि अश्वमेध नामक महायज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दी थी। | ||
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+ | सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मृत्यु से बच न सके, तब तुम्हारे पुत्र के लिये क्या कहा जाय? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। सृंजय! सुनने में आया है कि अमूर्तरया के पुत्र राजा [[गय]] की भी मृत्यु हुई थी। उन्होंने सौ वर्षां तक होम से अवशिष्ट अन्न का ही भोजन किया। एक समय [[अग्निदेव]] ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा, तब राजा गय ने ये वर माँगे, 'अग्निेदव! आपकी कृपा से दान करते हुए मेरे पास अक्षय धन का भंडार भरा रहे। धर्म में मेरी श्रद्धा बढ़ती रहे और मेरा मन सदा सत्य में ही अनुरक्त रहे’। सुना है कि उन्हें [[अग्नि देव]] से वे सभी मनोवांच्छित फल प्राप्त हो गये थे। उन्होंने एक हजार वर्षों तक बारंबार दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य तथा अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। वे हजार वर्षों तक प्रतिदिन सबेरे उठ-उठ कर एक-एक लाख गौओं और सौ-सौ खच्चरों का दान करते थे। | ||
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+ | पुरुषप्रवर! इन्होंने सोमरस के द्वारा देवताओं को, धन के द्वारा [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को, श्राद्ध कर्म से पितरों को और कामभोग द्वारा स्त्रियों को तृप्त किया था। राजा गय ने महायज्ञ अश्वमेध में दस व्याम (पचास हाथ) चौड़ी और इससे दूनी लंबी सोने की पृथ्वी बनवाकर दक्षिणा रूप से दान की थी। पुरुषप्रवर नरेश! [[गंगा|गंगा जी]] में जितने बालू के कण हैं, अमूर्तरया के पुत्र गय ने उतनी ही गौओं का दान किया था। सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। सृंजय! संस्कृति के पुत्र राजा [[रन्तिदेव]] भी काल के गाल में चले गये, यह हमारे सुनने में आया है। उन महातपस्वी नरेश ने इन्द्र की अच्छी तरह आराधना करके उनसे यह बर माँगा कि 'हमारे पास अन्न बहुत हो, हम सदा अतिथियों की सेवा अवसर प्राप्त करें, हमारी श्रद्धा दूर न हो और हम किसी से कुछ भी न माँगें'।' | ||
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12:00, 14 मार्च 2018 के समय का अवतरण
एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 103-121 का हिन्दी अनुवाद
सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मृत्यु से बच न सके, तब तुम्हारे पुत्र के लिये क्या कहा जाय? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। सृंजय! सुनने में आया है कि अमूर्तरया के पुत्र राजा गय की भी मृत्यु हुई थी। उन्होंने सौ वर्षां तक होम से अवशिष्ट अन्न का ही भोजन किया। एक समय अग्निदेव ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा, तब राजा गय ने ये वर माँगे, 'अग्निेदव! आपकी कृपा से दान करते हुए मेरे पास अक्षय धन का भंडार भरा रहे। धर्म में मेरी श्रद्धा बढ़ती रहे और मेरा मन सदा सत्य में ही अनुरक्त रहे’। सुना है कि उन्हें अग्नि देव से वे सभी मनोवांच्छित फल प्राप्त हो गये थे। उन्होंने एक हजार वर्षों तक बारंबार दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य तथा अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। वे हजार वर्षों तक प्रतिदिन सबेरे उठ-उठ कर एक-एक लाख गौओं और सौ-सौ खच्चरों का दान करते थे। पुरुषप्रवर! इन्होंने सोमरस के द्वारा देवताओं को, धन के द्वारा ब्राह्मणों को, श्राद्ध कर्म से पितरों को और कामभोग द्वारा स्त्रियों को तृप्त किया था। राजा गय ने महायज्ञ अश्वमेध में दस व्याम (पचास हाथ) चौड़ी और इससे दूनी लंबी सोने की पृथ्वी बनवाकर दक्षिणा रूप से दान की थी। पुरुषप्रवर नरेश! गंगा जी में जितने बालू के कण हैं, अमूर्तरया के पुत्र गय ने उतनी ही गौओं का दान किया था। सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा भी थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। सृंजय! संस्कृति के पुत्र राजा रन्तिदेव भी काल के गाल में चले गये, यह हमारे सुनने में आया है। उन महातपस्वी नरेश ने इन्द्र की अच्छी तरह आराधना करके उनसे यह बर माँगा कि 'हमारे पास अन्न बहुत हो, हम सदा अतिथियों की सेवा अवसर प्राप्त करें, हमारी श्रद्धा दूर न हो और हम किसी से कुछ भी न माँगें'।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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