महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 122-138

एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 122-138 का हिन्दी अनुवाद


'कठोर व्रत का पालन करने वाले, यशस्वी महात्मा राजा रन्तिदेव के पास गाँवों और जंगलों के पशु अपने-आप यज्ञ के लिये उपस्थित हो जाते थे। वहाँ भीगी चर्म राशि से जो जल बहता था, उससे एक विशाल नदी प्रकट हो गयी, जो चर्मण्वती (चम्बल) के नाम से विख्यात हुई। राजा अपने विशाल यज्ञ में ब्राह्मणों को सोने के निष्क दिया करते थे। वहाँ दिव्यलोग पुकार-पुकार कहते कि- 'ब्राह्मणों! यह तुम्हारे लिये निष्क है, यह तुम्हारे लिये निष्क है’ परंतु कोई लेने वाला आगे नहीं बढ़ता था। फिर वे यह कहकर कि 'तुम्हारे लिये एक सहस्र निष्क हैं’, लेने वाले ब्राह्मणों को उपलब्ध कर पाते थे। बुद्धिमान राजा रन्तिदेव के उस यज्ञ में अन्वाहार्य अग्नि में आहुति देने के लिये जो उपकरण थे तथा द्रव्य-संग्रह के लिये जो उपकरण- घड़े, पात्र कड़ाहे, बटलोई और कठौते आदि समान थे, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं था, जो सोने का बना हुआ न हो। संस्कृति के पुत्र राजा रन्तिदेव के घर में जिस रात को अतिथियों का समुदाय निवास करता था, उस समय उन्हें बीस हजार एक सौ गौएँ छूकर दी जीती थीं। वहाँ विशुद्ध मणिमय कुण्डल धारण किये रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे कि 'आप लोग खूब दाल-भात खाइये। आज का भोजन पहले जैसा-नहीं है, अर्थात पहले की अपेक्षा बहुत अच्छा है’। सृंजय! रन्तिदेव तुमसे पूर्वोक्त चारों गुणों में बढे़-चढे़ थे और तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो।

सृजंन! इक्ष्वाकुवंशी पुरुष सिंह महामना सगर भी मरे थे, ऐसा सुनने में आया है। उनका पराक्रम अलौकिक था। जैसे वर्षा के अन्त (शरद्) में बादलों से रहित आकाश के भीतर तारे नक्षत्र राज चन्द्रमा का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार राजा सगर जब युद्ध आदि के लिये कहीं यात्रा करते थे, तब उनके साठ हजार पुत्र उन नरेश के पीछे-पीछे चलते थे। पूर्वकाल में राजा के प्रताप से एकछत्र पृथ्वी उनके अधिकार में आ गयी थी। उन्होंने एक सहस्र अश्वमेध यज्ञ करके देवताओं को तृप्त किया था। राजा ने सोने के खंभों से युक्त पूर्णतः सोने का बना हुआ महल, जो कमल के समान नेत्रों वाली सुन्दरी स्त्रियों की शय्याओं से सुशोभित था, तैयार कराकर योग्य ब्राह्मणों को दान किया। साथ ही नाना प्रकार की भोग सामग्रियाँ भी प्रचुरमात्रा में उन्हें दी थीं। उनके आदेश से ब्राह्मणों ने उनका सारा धन आपस में बाँट लिया था। एक समय क्रोध में आकर उन्होंने समुद्र से चिह्नित सारी पृथ्वी खुदवा डाली थी। उन्हीं के नाम पर समुद्र की 'सागर’ संज्ञा हो गयी। सृंजय! वे चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढे़ हुए थे। तुम्हारे पुत्र से बहुत अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये, तब तुम्हारे पुत्र की क्या बात है? अतः तुम उसके लिये शोक न करो। सृंजय! वेन के पुत्र महाराज पृथु को भी अपने शरीर का त्याग करना पड़ा था, ऐसा हमने सुना है। महर्षियों ने महान् वन में एकत्र होकर उनका राज्याभिषेक किया था। ऋषियों ने यह सोचकर कि सब लोगों में धर्म की मर्यादा के प्रथित (स्थापित) करेंगे, उनका नाम पृथु रखा था। वे क्षत अर्थात् दुःख से सबका त्राण करते थे, इसलिये क्षत्रिय कहलाये।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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