महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 2 श्लोक 38-54

द्वितीय (2) अध्‍याय: स्‍वर्गारोहण पर्व

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महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व द्वितीय अध्याय: श्लोक 38-54 का हिन्दी अनुवाद


महान कष्ट और दु:ख में पड़े हुए प्राणियों की वे ही पहले की सुनी हुई करुणाजनक बातें सामने की ओर से बारंबार उनके कानों में पड़ने लगीं तो भी वे पांडुकुमार उन्हें पहचान न सके। उनकी वे बातें पूर्णरूप से न समझकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने पूछा- "आप लोग कौन हैं और किसलिये यहाँ रहते हैं?" उनके इस प्रकार पूछने पर वे सब चारों ओर से बोलने लगे- "प्रभो! मैं कर्ण हूँ। मैं भीमसेन हूँ। मैं अर्जुन हूँ। मैं नकुल हूँ। मैं सहदेव हूँ। मैं धृष्टद्युम्न हूँ। मैं द्रौपदी हूँ और हम लोग द्रौपदी के पुत्र हैं।" इस प्रकार वे सब लोग चिल्ला-चिल्लाकर अपना-अपना नाम बताने लगे।

नरेश्वर! उस देश के अनुरूप उन बातों को सुनकर राजा युधिष्ठिर मन-ही-मन विचार करने लगे कि "दैव का यह कैसा विधान है। मेरे इन महामना भाइयों ने, कर्ण ने, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों ने अथवा स्‍वयं सुमध्‍यमा द्रौपदी ने भी कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे ये लोग इस दुर्गन्धपूर्ण भयंकर स्‍थान में निवास करते हैं। इन समस्‍त पुण्यात्मा पुरुषों ने कभी कोई पाप किया था, इसे मैं नहीं जानता। धृतराष्ट्र का पुत्र राजा सुयोधन कौन-सा पुण्यकर्म करके अपने समस्‍त पापी सेवकों के साथ वैसी अद्भुत शोभा और सम्‍पत्ति से संयुक्‍त हुआ है? वह तो यहाँ अत्यन्त सम्‍मानित होकर महेन्द्र के समान राजलक्ष्मी से सम्‍पन्न हुआ है। इधर यह किस कर्म का फल है कि मेरे सगे-सम्‍बन्धी नरक में पड़े हुए हैं? मेरे भाई सम्पूर्ण धर्म के ज्ञाता, शूरवीर, सत्यवादी तथा शास्त्र के अनुकूल चलने वाले थे। इन्होंने क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहकर बड़े-बड़े यज्ञ किये और बहुत-सी दक्षिणाएँ दी हैं (तथापि इनकी ऐसी दुर्गति क्‍यों हुई)? क्‍या मैं सोता हूँ या जागता हूँ? मुझे चेत है या नहीं? अहो! यह मेरे चित्त का विकार तो नहीं है, अथवा हो सकता है यह मेरे मन का भ्रम हो।"

दु:ख और शोक के आवेश से युक्‍त हो राजा युधिष्ठिर इस तरह नाना प्रकार से विचार करने लगे। उस समय उनकी सारी इन्द्रियाँ चिन्ता से व्‍याकुल हो गयी थीं। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के मन में तीव्र रोष जाग उठा। वे देवताओं और धर्म को कोसने लगे। उन्होंने वहाँ की दु:सह दुर्गन्ध से संतप्‍त होकर देवदूत से कहा- "तुम जिनके दूत हो, उनके पास लौट जाओ। मैं वहाँ नहीं चलूँगा। यहीं ठहर गया हूँ, अपने मालिकों को इसकी सूचना दे देना। यहाँ ठहरने का कारण यह है कि मेरे निकट रहने से यहाँ मेरे इन दु:खी भाई-बन्धुओं को सुख मिलता है।"

बुद्धिमान पांडुपुत्र के ऐसा कहने पर देवदूत उस समय उस स्‍थान को चला गया, जहाँ सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले देवराज इन्द्र विराजमान थे। नरेश्वर! दूत ने वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिर की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं और यह भी निवेदन कर दिया कि वे क्‍या करना चाहते हैं।


इस प्रकार श्रीमहाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व में युधिष्ठिर को नरक का दर्शन विषयक दूसरा अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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