महाभारत स्‍वर्गारोहण पर्व अध्याय 2 श्लोक 21-37

द्वितीय (2) अध्‍याय: स्‍वर्गारोहण पर्व

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महाभारत: स्‍वर्गारोहण पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ यत्र-तत्र बहुत-से मुर्दे बिखरे पड़े थे, उनमें से किसी के शरीर से रुधिर और मेद बहते थे, किसी के बाहु, ऊरु, पेट और हाथ-पैर कट गये थे। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर मन-ही-मन बहुत चिन्ता करते हुए उसी मार्ग के बीच से होकर निकले, जहाँ सड़े मुर्दों की बदबू फैल रही थी और अमंगलकारी वीभत्स दृश्‍य दिखायी देता था। वह भयंकर मार्ग रोंगटे खड़े कर देने वाला था। आगे जाकर उन्होंने देखा, खौलते हुए पानी से भरी हुई एक नदी बह रही है, जिसके पार जाना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखी तलवारों या छूरों के-से पत्तों से परिपूर्ण तेज धार वाला असिपत्र नामक वन है। कहीं गरम-गरम बालू बिछी है तो कहीं तपाये हुए लोहे की बड़ी-बड़ी चट्टानें रखी गयी हैं। चारों ओर लोहे के कलशों में तेल खौलाया जा रहा है; जहाँ-तहाँ पैने काँटों से भरे हुए सेमल के वृक्ष हैं, जिनको हाथों से छूना भी कठिन है।

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर ने यह भी देखा कि वहाँ पापाचारी जीवों को बड़ी कठोर यातनाएँ दी जा रही हैं। वहाँ की दुर्गन्ध का अनुभव करके उन्होंने देवदूत से पूछा- "भैया! ऐसे रास्‍ते पर अभी हम लोगों को कितनी दूर और चलना है? तथा मेरे वे भाई कहाँ हैं? यह तुम्हें मुझे बता देना चाहिये। देवताओं का यह कौन-सा देश है, इस बात को मैं जानना चाहता हूँ।"

धर्मराज की यह बात सुनकर देवदूत लौट पड़ा ओर बोला- "बस, यहीं तक आपको आना था। महाराज! देवताओं ने मुझसे कहा है कि जब युधिष्ठिर थक जायें, तब उन्हें वापस लौटा लाना; अत: अब मुझे आपको लौटा ले चलना है। यदि आप थक गये हों तो मेरे साथ आइये।"

भरतनन्दन! युधिष्ठिर वहाँ की दुर्गन्ध से घबरा गये थे। उन्हें मूर्च्छा-सी आने लगी थी। इसलिये उन्होंने मन में लौट जाने का निश्चय किया और उस निश्चय के अनुसार वे लौट पड़े। दु:ख और शोक से पीड़ित हुए धर्मात्मा युधिष्ठिर ज्‍यों ही वहाँ से लौटने लगे, त्यों ही उन्हें चारों ओर से पुकारने वाले आर्त मनुष्यों की दीन वाणी सुनायी पड़ी- "हे धर्मनन्दन! हे राजर्षे! हे पवित्र कुल में उत्पन्न पांडुपुत्र युधिष्ठिर! आप हम लोगों पर कृपा करने के लिये दो घड़ी तक यहीं ठहरिये। आप दुर्धर्ष महापुरुष के आते ही परम पवित्र हवा चलने लगी है। तात! वह हवा आपके शरीर की सुगन्ध लेकर आ रही है, जिससे हम लोगों को बड़ा सुख मिला है। पुरुषप्रवर! कुन्तीकुमार! नृपश्रेष्ठ! आज दीर्घकाल के पश्चात आपका दर्शन पाकर हम सुख का अनुभव करेंगे। महाबाहु भरतनन्दन! हो सके तो दो घड़ी भी ठहर जाइये। कुरुनन्दन! आपके रहने से यहाँ की यातना हमें कष्ट नहीं दे रही हैं।"

नरेश्वर! इस प्रकार वहाँ कष्ट पाने वाले दु:खी प्राणियों के भाँति-भाँति के दीन वचन उस प्रदेश में उन्हें चारों ओर से सुनायी देने लगे। दीनतापूर्ण वचन कहने वाले उन प्राणियों की बातें सुनकर दयालु राजा युधिष्ठिर वहाँ खड़े हो गये। उनके मुँह से सहसा निकल पड़ा- "अहो! इन बेचारों को बड़ा कष्ट है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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