एकत्रिंश (31) अध्याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)
महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 74/2 का हिन्दी अनुवाद
भरतश्रेष्ठ! वह मधुर शब्द सुनकर घटोत्कच के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने अनेक मनोरम कक्षाओं को पार करके द्वारपाल के साथ जा सुन्दर स्वर्णसिंहासन पर बैठे हुए महात्मा विभीषण का दर्शन किया। उनका सिंहासन सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था और उसमें मोती तथा मणि आदि रतन जड़े हुए थे। दिव्य आभूषणों से राक्षसराज विभीषण अंगों की विचित्र शोभा हो रही थी। उनका रूप दिव्य था। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके दिव्य गन्ध से अभिषिक्त हो बड़े सुन्दर दिखायी दे रहे थे। उनकी अंगकान्ति सूर्य तथा अग्नि के समान उद्भासित हो रही थी। जैसे इन्द्र के पास बहुत से देवता बैठते हैं, उसी प्रकार विभीषण के समीप उनके सचिव बैठे थे। बहुत से दिव्य सुन्दर महारथी यक्ष अपनी स्त्रियों के साथ मंगलयुक्त वाणी द्वारा विभीषण का विधिपूर्वक पूजन कर रहे थे। दो सुन्दरी नारियाँ सुवणर्मय दण्ड से विभूषित बहुमूल्य चँवर तथा व्यजन लेकर उनके मस्मक पर डुला रही थीं। राक्षसराज विभीषण कुबेर और वरुण के समान राज लक्ष्मी से सम्पन्न एवं अद्भुत दिखायी देते थे। उनके अंगों से दिव्य प्रभा छिटक रही थी। वे सदा धर्म में स्थित रहते थे। वे मन ही मन इक्ष्वाकुवंशशिरोमणी श्रीरामचन्द्र जी का स्मरण करते थे। राजन! उन राक्षसराज विभीषण को देख घटोत्कच ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। और जैसे महापराक्रमी चित्ररथ इन्द्र के सामने नम्र रहते हैं, उसी प्रकार महाबली घटोत्कच भी विनीत भाव से उनके सम्मुख खड़ा हो गया। राक्षसराज विभीषण ने उस दूत को आया हुआ देख उसका यथायोग्य सम्मान करके सान्त्वनापूर्ण वचनों में कहा। विभीषण ने पूछा- दूत! जो महाराज मुझसे कर लेना चाहते हैं, वे किसके कुल में उत्पन्न हुए हैं। उनके समस्त भाइयों तथा ग्राम और देश का परिचय दो। मैं तुम्हारे विषय में भी जानना चाहता हूँ तथा तुम जिस कार्य के लिये कर लेने आये हो, उस समस्त कार्य के विषय में भी मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ। तुम मेरी पूछी हुई इन सब बातों को विस्तारपूर्वक पृथक-पृथक बताओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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