महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 74/1

एकत्रिंश (31) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 74/1 का हिन्दी अनुवाद


राजन! लंका की ओर जाते हुए घटोत्कच ने समुद्र को देखा। वह कछुओं, मगरों, नाकों तथा मत्स्य आदि जल जन्तुओं से भरा हुआ था। उसमें ढेर के ढेर शंख सीपियाँ छा रही थीं। भगवान श्रीराम के द्वारा बनवाये हुए पुल को देखकर घटोत्कच को भगवान के पराक्रम का चिन्तन हो आया और उस सेतुतीर्थ को प्रणाम करके उसने समुद्र के दक्षिणतट की ओर दृष्टिपात किया। राजेन्द्र! तत्पश्चात दक्षिणतट पर पहुँचकर घटोत्कच ने लंकापुरी देखी, जो स्वर्ग के समान सुन्दर थी। उसके चारों ओर चहारदीवारी बनी थी। सुन्दर फाटक उस रमणीय पुरी की शोभा बढ़ाते थे। सफेद और लाल रंग के हजारों महलों से वह लंकापुरी भरी हुई थी। वहाँ के गवाक्ष (जंगले) सोने के बने हुए थे और उनके भीतर मोतियों की जाली लगी हुई थी। कितने ही गवाक्ष सोने, चाँदी तथा हाथी दाँत की जालियों से सुशोभित थे। कितनी ही अठ्ठालिकाएँ तथा गोपुर उस नगरी की शोभा बढ़ाते थे। स्थान-स्थान पर सोने के फाटक लगे हुए थे। वहाँ दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि गूँजती रहती थी। बहुत से उद्यान और वन उस नगरी की श्रीवृद्धि कर रहे थे। उसमें चारों ओर फूलों की सुगन्ध छा रही थी। वहाँ की लंबी-चौड़ी सड़कें बहुत सन्दर थीं। भाँति-भाँति के रत्नों से भरी पुरी लंका इन्द्र की अमरावतीपुरी को भी लज्जित कर रही थी। घटोत्कच ने राक्षसों से सेवित उस लंकापुरी में प्रवेश किया और देखा, झुंड के झुंड राक्षस त्रिशूल और भाले लिये विचर रहे हैं। वे सभी युद्ध में कुशल है और नाना प्रकार के वेष धारण करते हैं।

घटोत्कच ने वहाँ की नारियों को भी देखा। वे सब की सब बड़ी सुन्दर थीं। उनके अंगों में दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा दिव्य हार शोभा दे रहे थे। उनके नेत्रों के किनारे मदिरा के नशे से कुछ लाल हो रहे थे। उनके नितम्ब और उरोज उभरे हुए तथा मांसल थे। भीमसेनपुत्र घटोत्कच को वहाँ आया देख लंकानिवासी राक्षसों को बड़ा हर्ष और विस्मय हुआ। इधर घटोत्कच इन्द्रभवन में समान मनोहर राजमहल के द्वार पर जा पहुँचा और द्वारपाल से इस प्रकार बोला।

घटोत्कच ने कहा- कुरुकुल में एक श्रेष्ठ राजा हो गये हैं। वे महाबली नरेश ‘पाण्डु’ के नाम से विख्यात थे। उनके सबसे छोटे पुत्र का नाम ‘सहदेव’ है। वे अपने बड़े भाई युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये कटिबद्ध हैं। धर्मराज युधिष्ठिर के सहायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। सहदेव ने कुरुराज युधिष्ठिर के लिये कर लेने के निमित्त मुझे दूत बनाकर यहाँ भेजा है। मैं पुलस्त्यनन्दन महाराज विभीषण से मिलना चाहता हूँ। तुम शीघ्र जाकर उन्हें मेरे आगमन की सूचना दो।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! घटोत्कच का वह वचन सुनकर वह द्वारपाल ‘बहुत अच्छा’ कहकर सूचना देने के लिये राजभवन के भीतर गया। वहाँ उसने हाथ जोड़कर दूत की कही हुई सारी बातें कह सुनायीं। द्वारपाल की बात सुनकर धर्मात्मा राक्षसराज विभीषण ने उससे कहा- ‘दूत को मेरे समीप ले आओ’। राजेन्द्र! धर्मज्ञ महात्मा विभीषण की ऐसी आज्ञा होने पर द्वारपाल बड़ी उतावली के साथ बाहर निकला और घटोत्कच से बोला- ‘दूत! आओ। महाराज से मिलने के लिये राजभवन में शीघ्र प्रवेश करो।’ द्वारपाल का कथन सुनकर घटोत्कच ने राजभवन में प्रवेश किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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