महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 71-73

एकत्रिंश (31) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 71-73 का हिन्दी अनुवाद


पाण्ड्य, द्रविड, उण्ड्र, केरल, आन्ध्र, तालवन, कलिंग, उष्ट्रकर्णिक, रमणीय आटवीपुरी तथा यवनों के नगर- इन सबको उन्होंने दूतों द्वारा ही वश में कर लिया और सबको कर देने के लिये विवश किया। वहाँ से समुद्र तट पर पहुँचकर पाण्डुनन्दन सहदेव ने सेना का पड़ाव डाला। भारत! तदनन्तर महाबाहु सहदेव ने अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्रणा देने में कुशल सचिवों के साथ बैठकर बहुत देर तक विचारविमार्श किया। राजेन्द्र जनमेजय! उन सबकी सम्मति को आदर देते हुए माद्रीकुमार ने अपने भतीजे राक्षसराज घटोत्कच का तुरंत चिन्तन किया। उनके चिन्तर करते ही वह बड़े डील-डौल वाला विशाल काय राक्षस दिखायी दिया। उसने सब प्रकार के आभूषण धारण कर रखे थे। उसके शरीर का रंग मेघों की काली घटा के समान था। उसके कानों में तपाये हुए सुवर्ण के कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसके गले मेें हार और भुजाओं मे केयूर की विचित्र शोभा हो रही थी। कटिभाग में वह किंकिणी की मणियों से विभूषित था। उसके कण्ठ में सुवर्ण की माला, मस्तक पर किरीट और कमर में करधनी की शोभा हो रही थी। उसके दाढ़े बहुत बड़ी थीं, सिर के बाल ताँबे के समान लाल थे, मूँछ दाढ़ी- जो अपने कानों से ही शरीर को ढक लें उनहें ‘कर्णप्रावरण’ कहते हैं।

प्राचीन काल में ऐसी जाति के लोग थे, जिनके कान पैरों तक लटकते थे। के बाल हरे दिखायी देते थे एवं आँखें बड़ी भयंकर थीं। उसकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद चमक रहे थे। उसने अपने सब अंगों में लाल चन्दन लगा रखा था। उसके पकड़े बहुत महीन थे। वह बलावान् राक्षस अपने वेग से समूची पृथ्वी को हिलाता हुआ सा वहाँ पहुँचा। राजन्! उस पर्वताकार घटोत्कच को आता देख वहाँ के सब लोग भय के मारे भाग खड़े हुए, मानो किसी सिंह के भय से जंगल के मृग आदि क्षुद्र पशु भाग रहे हों। घटोत्कच माद्रीनन्दन सहदेव के पास आया, मानो रावण ने महर्षि पुलस्त्य के पास पदार्पण किया हो। महाराज! तदनन्तर घटोत्कच सहदेव को प्रणाम करके उनके सामने विनीतभाव से हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है?’ घटोत्कच मेरुपर्वत के शिखर जैसा जान पड़ता था। उसको आया देख पाण्डुनन्दन सहदेव ने दोनों भुजाओं में भरकर उसे हृदय से लगा लिया और बार-बार उसका मस्तक सूँघा। तत्पश्चात उसका स्वागत सत्कार करके मन्त्रियों सहित सहदेव बड़े प्रसन्न हुए और इस प्रकार बोले।

सहदेव ने कहा- वत्स! तुम मेरी आज्ञा से कर लेने के लिये लंकापुरी में जाओ और वहाँ राक्षसराज महात्मा विभीषण से मिलकर राजसूय यज्ञ के लिए भाँति-भाँति के बहुत से रत्न प्राप्त करो। महाबली वीर! उनकी ओर से भेंट से मिली हुई सब वस्तुएँ लेकर शीघ्र यहाँ लौट आओ। बेटा यदि विभीषण तुम्हें भेंट न दें, तो उन्हें अपनी शक्ति का परिचय देते हुए इस प्रकार कहना- ‘कुबेर के छोटे भाई लंकेश्वर! कुन्तीकुमार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण के बाहुबल को देखकर भाइयों सहित राजसूय यज्ञ आरम्भ किया है। आप इस समय इन बातों को अच्छी तरह जान लें। आपका कल्याण हो, अब मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’ इतना कहकर तुम शीघ्र लौट आना, अधिक विलम्ब मत करना। वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज जनमेजय! पाण्डुकुमार सहदेव के ऐसा कहने पर घटोत्कच बहुत प्रसन्न हुआ और ‘तथास्तु’ कहकर सहदेव की परिक्रमा करके दक्षिण दिशा की ओर चल दिया। इस प्रकार समुद्र के तट पर पहुँचकर बुद्धिमान शत्रुदमन धर्मात्मा माद्रवतीकुमार ने महात्मा पुलस्त्यनन्दन विभीषण के पास प्रेमपूर्वक घटोत्कच को अपना दूत बनाकर भेजा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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