चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 44-59 का हिन्दी अनुवाद
तत्पश्चात उसने ऐसी भीषण गर्जना की, जो समस्त प्राणियों के मन में भय उत्पन्न करने वाली थी। फिर उसने यज्ञ का सिर काटकर बड़े जोर से सिंहनाद किया और मन-ही-मन आनन्द का अनुभव किया। तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष- ये सब-के-सब हाथ जोड़कर बोले- 'देवदेव! कहिये, आप कौन हैं?' वीरभद्र ने कहा- ब्रह्मन! मैं न तो रुद्र हूँ, न देवी हूँ और न यहाँ भोजन करने के लिये ही आया हूँ। तुम्हारा यह यज्ञ देवी पार्वती के रोष का कारण बन गया है- ऐसा जानकर सर्वात्मा भगवान शिव कुपित हो उठे हैं। मैं यहाँ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों का दर्शन करने या कौतूहलवश इस यज्ञ का तमाशा देखने के लिये नहीं आया हूँ। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे इस यज्ञ का विनाश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ। मेरा नाम वीरभद्र है। रुद्रदेव के क्रोध से मेरा प्राकट्य हुआ है। यह नारी भद्रकाली के नाम से विख्यात है और देवी पार्वती के कोप से प्रकट हुई है। देवाधिदेव महादेव ने हम दोनों को यहाँ भेजा है। इसलिये हम दोनों इस यज्ञ के निकट आये हैं। विप्रवर! तुम देवाधिदेव उमावल्लभ भगवान शिव की शरण में जाओ। महादेव जी का क्रोध भी परममंगलमय है और दूसरों से मिला हुआ वरदान भी मंगलकारक नहीं होता। वीरभद्र की बात सुनकर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ दक्ष ने भगवान शिव के उद्देश्य से प्रणाम करके निम्नांकित स्तोत्र के द्वारा उनकी स्तुति की- 'जो सम्पूर्ण जगत के शासक, पालक, महान आत्मा, नित्य, सनातन, अविकारी और आराध्यदेव हैं, उन महादेव जी की आज मैं शरण लेता हूँ।' तब अनेक नेत्रों वाले, शत्रुविजयी, महादेव अपने मुखों द्वारा यत्नपूर्वक प्राण और अपान वायु को अवरुद्ध करके सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टिपात करते हुए सहसा अग्निकुण्ड से निकल पड़े। प्रलयकालीन अग्नि के समान तेजस्वी स्वरूप से सहस्रों सूर्यों की प्रभा धारण किये वे दक्ष के सामने खड़े हो गये और मुस्कराकर बोले- 'प्रजापते! बोलो, मैं आज तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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